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________________ ३४६ * जेलमें मेरा जैनाभ्यास * तृतीय उस समय प्रात्मो न तो तत्त्वज्ञानकी निश्चित भूमिकापर है और न तत्त्वज्ञान-शून्य भूमिकापर है। अथवा जैसे कोई व्यक्ति चढ़ने की सीढ़ियोंसे खिसक कर जब तक जमीनपर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्थाका अनुभव करता है। तीसरा गुणस्थान श्रात्माकी उस मिश्रित अवस्थाका नाम है, जिसमें न तो केवल सम्यक् दृष्टि है और न केवल मिथ्या दृष्टि, किन्तु आत्मा उसमें डोलायमान आध्यात्मिक स्थितिवाला जाना जाता है। अतएव उसकी बुद्धि स्वाधीन न होने के कारण सन्देहशील होती है अर्थात् उसके सामने जो कुछ आया, वह सब सच है: न तो वह तत्त्वको एकान्त अतत्त्व रूपसे ही जानती है और न तत्त्व-अतत्त्वका वास्तविक पूर्ण विवेक ही कर सकती है। कोई उत्क्रान्ति करनेवाली आत्मा प्रथम गुणस्थानसे निकल कर सीधे ही तीसरे गुणस्थानको प्राप्त कर सकती है और कोई अपक्रान्ति करनेवाला आत्मा भी चतुर्थ श्रादि गुणस्थानसे गिरकर तीसरे गुणस्थानको प्राप्त करता है । इस प्रकार उत्क्रान्ति करनेवाली और अपक्रान्ति करनेवाली-दोनों प्रकारकी आत्माओं का आश्रय स्थान तीसरा गुणस्थान है। यही तीसरे गुणस्थानकी दूसरे गुणस्थानसे विशेषता है। इस अवस्थामें विकासगामी आत्मा (आत्म) स्वरूपका मान करने लगता है अर्थात् उसकी जो अब तक पररूपमें
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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