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________________ * भावनाएँ * ३२३ (२) अशरण--जैसे बनके एकान्त स्थानमें सिंहके द्वारा पकड़े हुए मृगकी कोई शरण नहीं होता है, उसी प्रकार इस संसारमें कालके गालमें पड़ते हुये जीवोंकी भी कोई रक्षा करने वाला-शरण नहीं है। इस प्रकार चिन्तन करना 'शरण' भावना है। किस प्रकार 'प्रभूतधन' सेठके पुत्रने रोगको वेदनाके कारण अपनेको अनाथ जाना; किम प्रकार उन्होंने दीक्षा ली; किस प्रकार 'श्रेणिक' राजाको नाथ-अनाथका भेद समझाया और किस प्रकार अशरण भावनाके कारण अपने मनुष्य-जन्मको उन्होंने सफल बनाया। इत्यादि बातें अन्य जैनशास्त्रोंसे जानना चाहिये । (३) संसार-यह जीव निरन्तर एक देहसे दूसरी देहमें जन्म ले-लकर चतुगतिमें परिभ्रमण किया करता है जिसके कारण इसकी अनेकों दुःख उठाने पड़ते हैं । अतएव यह संसार दुःखमय है, इत्यादि संसार के स्वरूपका चिन्तन करना 'संसार' भावना है। किस प्रकार 'मलीकुमारी ने अपने पूर्वभवके मित्र छहों राजाओंको बोध देकर दीक्षा ली; किस प्रकार तीर्थक्कर पदको प्राप्त कर निर्वाण पद प्राप्त किया; किस प्रकार छहों राजाओंको संसार भावना भाते हुए जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ और किस प्रकार दीक्षा ले उन्होंने अपना मनुष्य-जन्म सफल किया। इत्यादि वर्णन अन्य जैन शास्त्रोंसे अवलोकन करना चाहिये। * "संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः" -पूज्यपादाचार्य।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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