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________________ एखड] * ध्यानका स्वरूप * २६१ - रहना चाहिये। जैसे-हमको व्यर्थ शोक-सन्ताप नहीं करना चाहिये, अगर कोई रोग या तकलीफ हो जाय तो शान्ति पूर्वक उसको सहते हुए उसके विनाशका उपाय करना चाहिये, अगर जीवनमें आनन्द और सुखप्रद वस्तुओंकी प्राति नहीं हुई है तो उसकेलिये शान्ति पूर्वक उपाय करना चाहिये और तब भी यदि वे नहीं प्राप्त हों तो अपने पूर्व-जन्मका अशुभ काँका उदय समझना चाहिये । इस तरह मनुष्यको सदा शुभ विचार रखने चाहिये । यदि अज्ञानवश बुरे विचार श्रावें भी तो तुरन्त उन्हें दूर कर देना चाहिये । छट गुणस्थान तक इस प्राध्यानका होना संभव है। रोद्रध्यान जैसे मदिरापान करनेसे मनुष्यकी बुद्धि खगब हो जाती है और वह बुरे कर्मा में आनन्द मानता है। उसी प्रकार यह जीव अनादिकालसे कम-रूपी मदिराके नशेमें मतवाला हो रहा है, जिसके प्रभावसे इसके अन्तःकरणमें बुरे-बुरे विचार पैदा होते हैं, जिन्हें ज्ञानियोंने “रौद्रध्यान" कहा है। रोद्रध्यानके चार भेद हैं। यथा १-हिंसानुबन्ध, २-मृषानुबन्ध, ३-तस्करानुबन्ध और ४-विषयसंरक्षणानुबन्ध । १-हिंसानुबन्ध-जिस प्राणीका चित्त सदा छेदन, भेदन, ताड़न, बन्धन बाँधना, दमन करना. प्रहार करना आदि कर्मों में
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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