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________________ खण्ड] * मनुष्य-जीवनकी सफलता * २५३ जीवनको सफल बना सकता है और इन्हींके दुरुपयोगद्वारा एक मनुष्य अपने जीवनका सत्यानाश कर सकता है। एक-एक इन्द्रियक विषयमें पड़ कर जीव संसारमें अपने जीवनको गंवा देते हैं। जैसे हिरण श्रोत्रन्द्रियद्वारा वाणाके स्वरसे मोहित होकर, भोरा घ्राणेन्द्रियद्वारा कमलकी मुगन्धक वशीभूत होकर, पतङ्ग चक्षुरिन्द्रियद्वारा दीपककी ज्योतिपर मुग्ध होकर, मदली जिहेन्दियद्वारा कोटपर लगे हुये आटे के स्वादमें पड़ कर अपनी जान गंवा देते हैं। ये प्राणी केवल एकएक इन्द्रियके वशवर्ती हो जाने के कारण मृत्यु नककी दुर्दशाका भोग करते हैं। यह बात शास्त्र और अनुभव द्वारा सिद्ध है तो फिर मनुष्यकी तो पाँचों ही इन्द्रियाँ प्रबल हैं। उसे तो इनसे हर समय सावधान रहनेकी आवश्यकता है-मनुष्यको तो उन पर हर समय काबू रखनकी ज़रत है। मनुष्य यदि अपने विचार-शक्तिसे काम न ले और इन्द्रियों के विषयों में पड़ जाय तो उसकी क्या बुरी अवस्था इस संसारमें और मृत्युके बाद हो, यह पाठक स्वयं समझ सकते हैं। ऐसा समझ कर प्रत्येक विचारशील पुरुपको अपनी विचारशक्ति, मन तथा इन्द्रियों को वशमें रखना चाहिये और पराक्रमद्वारा अपने मनुष्य-जीवन को सफल बनाने में सदा तत्पर रहना चाहिये । अब यहाँ प्रश्न उठता है कि वह कौनसा मार्ग है जिससे एक मनुष्य अपने जीवनको सफल बना सकता है ?
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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