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________________ स्वराड * मनुष्य-जीवनको सफलता * २४३ - कुलोंसे निकल कर कर्माका अन्त कर परमपद अथवा सिद्ध गतिको प्राप्त करना है। तो अब प्रश्न उठता है कि वह परमपद अथवा सिद्धगति क्या है ? सिद्धगति वह पद है, जहां पर अनादि कालसे भ्रमण करनेवाली यह संसारी आत्मा आवागवनके चक्रसे छूट कर हमेशाकेलिये अतीन्द्रिय सुम्बका भोग करता है । इस अवस्थामें अनन्त ज्ञान. अनन्त मुम्ब, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्यका भाग कर आत्मा सब प्रकार की व्याधा-पीड़ासे रहित हो जाती @ क्यों कि इस समय-सामारिक अवस्थामें यह जीव कर्म-लिप्त है-बद्ध है । इस कर्म-लिप्तना-बदनाके कारण ही यह जीव नाना गतियोंमें भ्रमण करता है, नाना प्रकार के क्लेश उठाता है और निज म्वरूपसे-ज्ञान-मुम्बके खजाने मे अपरिचित रहता है। अामाके अनन्त गुण हैं या यों कहना चाहिये कि भारमा अनन्त गुणोंका पुस्ज है। अनन्तगुण भण्डारी प्रामाके ज्ञान और सुख, ये दो गुण ऐसे हैं कि जिनकी पारमाका अनुमव यह जीव कर्म-लिप्त अवस्थामें भी कर सकता है । यही कारण है कि सभी संसारी जीवोंको ज्ञान और मुम्बकी अभिलाषा स्वाभाविक रूपमें उत्पन्न होती है। उसे वे मनोनुकूल जितना-चाहे उनना प्राप्त कर न सकें, यह दूसरी बात है। यह एक प्रसमर्थता है । पर ज्ञान और सुख के प्राप्त करनेकी अभिलाषा संसारी जीवके होती म्वतः है। क्यो कि वे उपके स्वाभाविक गुण है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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