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________________ खण्ड] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश * २२१ - कारण यह जीव-आत्मा चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है और नाना प्रकारके दुःख उठाता है। इस संसार-परिभ्रमण और दुःख-सहनसे जीव छुटकारा तभी पा सकता है, जब वह इसके पूर्वोक्त मिथ्यात्व-अविरति श्रादि कारणोंको छोड़ दें। क्योंकि संसार-परिभ्रमण और दुःख-सहन के ये ही तो कारण हैं । कारण के प्रभाव होजानेपर ही कार्यका अभाव हो सकता है। इसलिये मिथ्यात्व-अविरति आदि बन्ध-हेतुओंके छोइनेका जिसमें उपदेश हो वही सुधर्म है और वही जीवका कल्याणकारी है । (३४) मिथ्यात्व मर्वथा और सर्वदा त्याज्य है। मिथ्यात्वसे जीव अनन्त काल तक संसारमें भ्रमण करता है। मिथ्यात्व नाना प्रकारके दुःख दिया करता है । यह जीवका बड़ा शत्र है। इस कारण इसको त्याग कर सम्यकत्वको अङ्गीकार करना चाहिये। शास्त्रकाराने तो यहाँ तक कहा है कि जो जीव केवल एक अन्त. मुहूर्त सम्बकत्व धारण कर ले तो उसके लिये संसार अर्धपुद्गल. परावर्तन मात्र रह जाता है । करोड़ों जन्म-जन्मातरोंके बाद कहीं मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है । इस कारण इसे व्यर्थ न गवा कर ...................................... ........--------- ___ * मोक्ष जानेवाले जीवका अधिक-से-अधिक अर्धपुद्गलपरावर्तन काल (समयकी एक संख्या-विशेष) जब बाकी रह जाता है, तब उसे सम्यक्त्व (प्रात्मश्रद्धान-प्रात्मरुचि) अवश्य उत्पन्न होता है। यह नियम है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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