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________________ २१८ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * [तृतीय (३२) विनय और विवेक प्राप्त करनेकेलिये सत्संगकी आवश्यकता पड़ती है । संगति करनेके पहले यह अच्छी तरह देख लेना चाहिये कि जिस मनुष्यकी मैं संगति करना चाहता हूँ वह सज्जन । है या नहीं। जो सजन हो उसीकी संगति करनी चाहिये । सजनोंकी संगतिसे सिवाय लाभके हानि नहीं होती। शास्त्रमें संगति करने योग्य सज्जनोंके लक्षण इस प्रकार बतलाये हैं: जो दूसरोंके दोषोंको द्वेष-बुद्धिसे प्रगट न करते हों; दूसरोंमें गुण थोड़े भी हों तो भी उनकी प्रशंसा करते हों; दूसरोंकी संपत्ति देखकर जलते न हों, प्रत्युत संतुष्ट होते हों; दूसरोंकी विपत्तिम सहानुभूति प्रगट करते हो और हो सकती हो तो सहायता भी । करते हों; आत्म-प्रशंसा न करते हों; न्याय-नीतिक मार्गका उल्लछन न करते हों; अपनेलिये अप्रिय व्यवहार करनेवाले के साथ भी प्रियकर और हितकर व्यवहार करते हों और क्रोध, मान, माया तथा लोभसे दूर रहते हों। इस प्रकारके सज्जनोंकी संगति करनेसे अनेक लाभ होते हैं: मोह नष्ट होता है; विवेक उत्पन्न होता है; प्रेमकी वृद्धि होती है; नीति-मार्गपर चलनेकी इच्छा होती है। विनयकी प्राप्ति होती है; यशका प्रसार होता है; धर्मानुकूल चलनेका अभ्यास पड़ता है; अनेक मनोरथोंकी सिद्धि होती है; कोई संकट आ पड़ा हो तो उससे सुगमतासे निकलनेका मार्ग सूझता है और किसी भी प्रकारके व्यसनमें फंसनेसे मनुष्य बचा रहता है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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