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________________ खण्ड ] * मुमुक्षुओंकेलिये उपयोगी उपदेश # २१५ ( २३ ) जिस प्रकार निघर्षण, छेदन, ताप और ताड़नसे सोनेकी परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया इन चारोंसे धर्मकी परीक्षा होती है। ( २४ ) इसके अतिरिक्त धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, ये चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से प्रधान पुरुषार्थ धर्म है । धर्म स्वाधीन होनेपर शेष तीन पुरुषार्थ भी शीघ्र ही स्वाधीन हो जाते हैं। शास्त्रकारोंने सत्य कहा है कि संसार में मनुष्यजन्म सारभूत है; इसमें भी तीन वर्ग सारभूत हैं; तीन वर्ग में भी धर्म सारभूत है; धर्ममें भी दान धर्म और दानमें भी विद्या और अभय दान श्रेष्ठ है। क्योंकि वही परमार्थ सिद्धिका मूल कारण हैं। इस कारण दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलने पर धर्म में प्रवृत्ति करनी चाहिये और मनुष्य जन्मको वृथा न गँवाना चाहिये । इस सम्बन्ध में तीन वणिक-पुत्रोंका उदाहरण प्रसिद्ध है। ते तीन वणिक् - पुत्र घरसे समान धन लेकर व्यापार करने निकले। इनमें से एकको लाभ हुआ, दूसरेने अपने मूल धनको ज्योंका त्यों सुरक्षित रक्खा और तीसरेने मूल धन भी खो दिया । धर्मकी भी ऐसी ही अवस्था है। कोई मनुष्यजन्म मिलने पर उसे बढ़ाता है, कोई ज्योंका त्यों रखता है और कोई जो होता है उसे भी खो बैठता है। इस दृष्टान्त में बहुत ही गूढ़ सिद्धान्त छिपे हुए हैं: तीनों पुत्रोंका पिता गुरुके समान है। तीनों पुत्रोंका तात्पर्य विरति देशविरति और अविरतिसे है । मूल धन रूपी तीन "
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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