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________________ खण्ड ] * मुमुक्षुओं के लिये उपयोगी उपदेश * २१३ (१६) शास्त्रकारों ने सच कहा है कि धन-हीन मनुष्य सौ रुपये चाहता है, सौवाला हजार चाहता है, हज्जारवाला लाख चाहता है, लाखवाला करोड़की इच्छा करता है, करोड़पति राज्य चाहता हैं, राजा चक्रवर्तित्व चाहता है, चक्रवर्ती देवत्वकी इच्छा करता है और देव इन्द्रत्व चाहता है। इस तरह लोभी मनुष्यको कभी भी सुख या सन्तोषकी प्राप्ति नहीं होती । किसीने सच कहा है कि जिस प्रकार इन्धनसे अग्नि और जलसे समुद्र कभी भी तृप्म नहीं होता, उसी प्रकार धनसे लोभी भी कभी तुम नहीं होता | उसे यह भी विचार नहीं होता कि आत्मा जब समस्त ऐश्वर्यको त्यागकर पर भव में चला जाता है, तब व्यर्थ ही पापकी गठरी मैं क्यों बाधू ? (२०) कलुपताको उत्पन्न करनेवाली, जड़ता को बढ़ानेवाली, वृक्षको निर्मूल करनेवाली, नांतिसे शत्रुता रखने वाली, दया और क्षमा वीकमलिनीको निर्मूल करने वाली, लोभ समुद्रको बढ़ानेवाली, मर्यादा तटको तोड़ गिरानेवाली और शुभ भावना रूपी हंसों को खदेड़ देनेवाली परिग्रह रूपी नदीमें जब बाढ़ आती है, तब ऐसा कौन दुःख है, जिसकी मनुष्यको प्राप्ति नहीं होती हो ? कहने का मतलब यह है कि परिग्रह-परिमाण बढ़ने पर लोभ-दशा बढ़ जाती है और उससे मनुष्यपर नाना प्रकार के संकट आ पड़ते हैं। इसलिये लोभवृत्तिका सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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