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________________ खण्ड * नवतत्त्व अधिकार - १६६ - Nana दूर जाते हैं, परन्तु केवलि-समुद्घातमें समस्त लोकमें व्याप्त हो जाते हैं और फिर वे शरीर-प्रमाण हो जाते हैं। जिस प्रकार आँख अग्निको देखकर जलती नहीं, समुद्रको देखकर डूबती नहीं, दुःखको देखकर दुःखी व सुखको देखकर सुखी होती नहीं। ऐसी ही केवलज्ञानकी महिमा है । वह सर्व शुभअशुम पदार्थ और उनकी अनेक दुःखित व सुखित अवस्थाको जानते हुए भी मोहके संसर्ग न होनेसे किसी भी प्रकारके विकार से विकृत नहीं होता । वह सदा निराकुल रहता है। जैसे दर्पण इस बातकी आकांक्षा नहीं करता है कि मैं पदार्थों को झलकाऊँ, परन्तु दर्पणकी चमकका ऐसा ही स्वभाव है कि उसके विषय में अासकने वाले सर्व पदार्थ अपने-आप उसमें झलकते हैं। वैसे ही निर्मल केवलज्ञानमें सर्व ज्ञेय स्वयं ही झलकते हैं। जैसे दर्पण अपने स्थानपर रहता और पदार्थ अपने म्थानपर रहते हैं तो भी दर्पण में प्रवेश हो गए या दर्पण उनमें प्रवंश हो गया, ऐमा झलकता है। वैसे ही आत्मा और उसका कंवलज्ञान अपने स्थानपर रहता है और ज्ञेय पदार्थ अपने स्थानपर रहते हुए कोई किसीमें प्रवेश नहीं करता, तो भी ज्ञेयज्ञायक सम्बन्धसे जब सर्व ज्ञेय ज्ञानमें झलकते हैं तब ऐसा मालूम होता है कि मानो आत्माके ज्ञानमें सर्व विश्व समा गया या यह आत्मा सर्व विश्वमें व्यापक हो गया। निश्चयसे ज्ञाता ज्ञेयोंमें प्रवेश नहीं करता। असली बात यही है। इसकेलिये आँख या दर्पणका दृष्टान्त भी यहाँ दिया जा सकता है।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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