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________________ खण्ड ] * नवतत्व अधिकार * १६७ है और न आत्मा अन्य पदार्थों की शक्तिसे प्राप्त करता है, बल्कि यह केवलज्ञान आत्माका ही स्वभाव है। यह इस श्रात्मामें ही था, पर कर्मों के आवरणों से ढका हुआ था । ज्यों ही कर्मों के आवरण हट जाते हैं, त्यों ही यह ज्ञान प्रकट होजाता है । ऐसे केवल ज्ञानमें सर्व ही ज्ञेय सदा काल प्रत्यक्ष रहते हैं । कहीं भी कभी भी कोई भी पदार्थ, गुण या पर्याय ऐसा नहीं है, जो केवलज्ञान से परे हो. इसीको 'सर्वज्ञता' या 'केवलज्ञान' कहते हैं। जितने प्रदेश द्रव्यके होते हैं, उतने ही प्रदेश गुणों के होते हैं। ऐसा होनेपर भी गुण स्वतन्त्रता से अपना-अपना कार्य करता है । यहाँ आत्मा द्रव्य है और ज्ञान उसका मुख्य गुण हैं। ज्ञान आत्मा के प्रमाण है और आत्मा ज्ञानके प्रमाण है । आत्मा श्रसंख्यातप्रदेशी है । इस कारण उसका ज्ञान गुण भी असंख्यात प्रदेशी है। दोनोंका तादात्म्य सम्बन्ध है। जो कभी भी उससे अलग न था और न अलग हो सकता है। यद्यपि ज्ञान गुणकी सत्ता आत्मामें ही है तथापि कार्य वह सर्वत्र करता है अर्थात् सर्व जानने योग्य पदार्थों को जानता है। कोई ज्ञेय उससे बाहर नहीं रह जाता। इससे विपयकी अपेक्षा ज्ञान ज्ञेयोंके बराबर है । ज्ञेयोंका विस्तार देखा जाय तो सर्व लोक और अलोक है। जितने द्रव्य, गुण व तीन कालवर्ती पर्याय हैं, वे सब जानने के विषय हैं और ज्ञान उन सबको जानता है ।
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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