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________________ ११६ * जेल में मेरा जैनाभ्यास * द्वितीय और वायुके पुद्गलसे बने हों। जो पुद्गल कर्म बनते हैं, वे एक प्रकारकी अत्यन्त सूक्ष्म रज हैं अथवा धूलि हैं, जिसको इन्द्रियाँ यंत्रकी मददसे भी नहीं जान सकतीं या देख सकतीं। सर्वज्ञ परमात्मा अथवा परम अवधिज्ञानवाले योगी ही इस रजको देख सकते हैं। जीवके द्वारा जब वह रज ग्रहण की जाती है, तब उसे 'कर्म' कहते हैं। जिस प्रकार चिकने घड़ेपर वायु चलनेसे धूलिके छोटे छोटे अणु लग जाते हैं, उसी प्रकार जब कोई भी जीव किसी प्रकारकी क्रिया, चाहे वह मनसे हो या वचनसे हो या कायसे हो, करता है, तब जिस श्राकाशमें आत्माकं प्रदेश हैं, वहींके अनन्त-अनन्त कर्मयोग्य पुद्गल परमाणु, जीवके एक-एक प्रदेशके साथ बंध जाते हैं। जिस प्रकार दूध और पानीका, तथा आगका और लोहेके गोलेका सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार जीव और कर्मपुद्गलोंका सम्बन्ध होता है। ____ कर्म और जीवका अनादिकालसे सम्बन्ध चला रहा है। पुराने कर्म अपना फल देकर श्रात्म-प्रदेशोंसे जुदा होजाते हैं और नये कर्म प्रतिसमय बँधते हैं। ___ कर्म और जीवका अनादि-सान्त तथा अनादि-अनन्त दो प्रकार का सम्बन्ध है । जो जीव मोक्ष पा चुके या पावेंगे उनका कर्मके साथ अनादि-सान्त सम्बन्ध है और जिन जीवोंको कभी मोक्ष न होगी उनका कर्मके साथ अनादि-अनन्त सम्बन्ध है। जिन जीवों
SR No.010089
Book TitleJail me Mera Jainabhayasa
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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