SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २] इस गाथा की संस्कृत टीका में आचार्य वसुनंदि ने लिखा है ___ "लिंग निग्रन्थरूपता, शरीर-सर्व-संस्काराभावोड चेलकत्वलोच-प्रतिलेखन-प्रहण--दर्शनज्ञान-चारित्रतपोभावश्च प्रतान्यहिंसादीनि।" अर्थात्-वस्त्रादि रहित निर्ग्रन्थ निंग, शरीर में सब संस्कारों का अभाव, अचेलफत्व, मता गुण, केशलोच, मयूर पिच्छिका ग्रहण, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप अहिंसादि पांच महासत, ये सब दि० साधुओं के लक्षण हैं । __ जिस बात को भगवान कुन्दकुन्द ने कहा है उसी को स्वामी बट्टकेर आचार्य ने कहा है। यथा सव्वारंभणियत्ता जुत्ता जिणदेसिम्मि धम्मम्मि । णय इच्छंति ममत्तिं परिगहे बालमित्तम्मि | (मूलाचार पृष्ठ ४३) अर्थ-दिगम्बर जैनधर्म में साधुओं का यही स्वरूप है कि वे समस्त प्रारम्भ, समस्त परिग्रह से रहित होते हैं और बालमात्र भी परिग्रह में उनका ममत्व नहीं होता है। __वस्त्र-त्याग किये बिना मुनिपद नहीं हो सकता, इसके लिये संयम विधायक सभी ग्रन्थ एकमत से प्रमाण हैं, उन सब प्रमाणों को देने से यह लेख एक बड़ा शास्त्र बन जायगा, इस लिये उन सब ग्रन्थों का प्रमाण देना आवश्यक नहीं हैं। ऊपर जो प्रमाण दिये गये हैं वे ही पर्याप्त हैं परन्तु भगवान बुदकुंद
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy