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________________ [१५] के आधार पर उपादान शक्ति कार्य रूप परिणत हो जाती है। इस सब कथन से इन्द्रिय और वेदों का कोई दृष्टान्त दार्टान्तभाव सिद्ध नहीं हो पाता है। क्योंकि अन्तरंग और बहिरंग कार्य कलाप दोनों के सर्वथा विषम हैं। दूसरी बात यह भी है कि जिस प्रकार भावेन्द्रिय के क्षयोपशम के अनुसार अंगोपांग आदि नामकर्मों के उदय से द्रव्येन्द्रिय की निवृत्ति होती है उस प्रकार वेदों की रचना नहीं है। भाववेद नो कषायके भेदरूप पुवेद स्त्रीवेद नपुंसक वेद के उदय से होता है और द्रव्यवेद नामकर्म के शरीर, अंगोपांग तथा निर्माण आदि कर्मोदय से होता है। ऐसा नहीं है कि भाववेद के उदय के अनुसार ही द्रव्यवेद की रचना होती है। यदि ऐसा होता तो जैसे एक जीव के तीनों भाव वेद उदय में आते हैं तो उनके अनुसार द्रव्यवेद भी एक जीव के तीनों बन जाते। परन्तु यह प्रत्यक्ष-बाधित बात है। आगम में भी ऐसा नहीं बताया गया है कि भाववेद के अनुमार द्रव्यवेद की रचना होती है। यही बात राजवार्तिक में स्पष्ट की गई है। यथा नामकर्म-चारित्रमोह नोकषायोदयाद्वेदत्रय-सिद्धिः । नामकर्मणश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य चोदयावदत्रयस्य सिद्धिर्भवति । वेधते इति वेदो लिङ्गमित्यर्थः। तल्लिगं द्विविधं द्रव्यलिंग भावलिङ्गम्चेति । नामकर्मोदयायोनिमेहनादि द्रव्यलिंगं भवति । नोकषायोदयाद्रात्र
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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