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________________ [ १३४ ] क्षुधादि वेदना अथवा कालाहार का निषेध करते हुए भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य भी कहते हैं - जरवाहि दुःखरहियं आहारणिहारबज्जियं विमलं । सिंहाण खेलसेपो णस्थि दुगंछा य दोसो य ॥ (पद प्राभृतादि संग्रह पृ० १०३) अर्थात्-बुढ़ापा, व्याधि दुःखों से रहित, तथा आहार और मल-मूत्र की बाधा से रहित, निर्मल, नासिका का मल, कफ आदि से रहित, पसीना से रहित तथा अन्य सब प्रकार के ग्लानिमय दुःखों से रहित भगवान अर्हन्त होते हैं। इसी बात को भगवान समन्तभद्राचार्य ने कहा हैमानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान , देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ परमासि देवता, श्रेयसे जिन्वृष प्रसीद नः || (वृहत्वयंभू स्तोत्र) अर्यात्-क्षुधादि बाधा और कवलाहादि करना आदि जो मनुष्यों की प्रकृति है उससे भगवान सर्वथा दूर हैं। इसी बात को और भी स्पष्ट भगवान समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मातंकभयस्मयाः । न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार) अर्थात्-जिसके भूख, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्ममरण, भय, मद, रागद्वेष, मोह मादि कोई दोष नहीं है वही
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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