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________________ [ १२५ ] I दर्शन, क्षायिक सुख और क्षायिक वीर्यं गुण यह अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाता है । यदि उनके साता-जन्य सुख माना जायगा तो वह सुख साता कर्म के उदय से होगा इस लिये बह औद- . यिक कहा जायगा । औदयिक होने से आत्मीय सुख नहीं होगा परन्तु भगवान के अनन्त सुख क्षायिक भाव माना गया है । यह शास्त्रीय विरोध भी भगवान के क्षुधादि बाधा का बाधक | जब उनके अनन्त सुख क्षायिक हो चुका है तो वह सदैव रहेगा और वैसी अवस्था में क्षुधादि बाधा - जन्य दुःख का उनके लेश भी कभी नहीं हो सकता है । है तीसरी बात यह है कि क्षुधादि बाधा का होना दुःख रूप कार्य है वह साता का फल हो सकता है, साता का नहीं हो सकता | परन्तु भगवान के असाता का उदय साता रूप में ही परिणत हो जाता है । यथा समयदिगो बंध सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स । तेरा असादसुदओ सादसरूवेण परिणमदि || ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा २७४ ) अर्थात् - केवली भगवान के एक सातावेदनीयका ही बन्ध होता है सो भी एक समय मात्र स्थिति वाला होता है । इस कारण असाता का उदय भी साता रूप से ही परिणत हो जाता है। इसके लिये यह दृष्टान्त दिया गया है कि जैसे जहां मिष्ट जल का अथाह समुद्र भरा हुआ है, खारे जल की एक बूंद का कोई असर नहीं हो सकता है। इसके आगे
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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