SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [११८ ] इस कथन की पुष्टि में सर्वार्थसिद्धिकार ने यह दृष्टान्त दिया है कि जिस प्रकार सर्वज्ञ भगवानके चिंता-निरोध लक्षण 'ध्यान नहीं है फिर भी कर्मों की निर्जरा होने के कारण वहां पर भी ध्यान का उपचार माना गया है। उसी प्रकार वेदनीय कर्मोदय वश केवल उपचार से भगवान के परीपहें मानी इस सर्वार्थसिद्धि टीका से यह अर्थ स्पष्ट होजाता है कि अर्हन्त भगवान के क्षुधादि वेदना सर्वथा नहीं है केवल वेदनीय कर्म का सद्भाव होनेसे उपचार मात्रसे वहां परीषह मानी गई हैं। इसके आगे और भी स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धिकार यहां तक लिखते हैं कि "अथवा एकादश जिने न सन्ति इति वाक्य शेषः कल्पनीयः" अथवा भगवान् केवली के ग्यारह परीषह नहीं होती हैं ऐसा भी अर्थ लगा लेना चाहिये । क्योंकि मोहनीय कर्म के उदय की सहायता वहां नहीं है। इसी बात की सिद्धि राजवार्तिककार अकलंकदेव ने भी की है। वे लिखते हैं वेदनीयोदयाभावात् क्षुधादि-प्रसंग इति चेनघातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् ॥ (राजवार्तिक ३३८) शंका उठाई गई है कि वेदनीय कर्म. का उदय होने से केवली भगवान के क्षुधादि का प्रसंग आवेगा ? उत्तर में
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy