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________________ | ११२ । परीपद भी है इसका स्वरूप इस प्रकार है जातरूपत्र निष्कलंक जातरूपधारणमशक्यप्रार्थनीयं याचनरक्षणहिंसादिदोपविनिर्मुक्त निष्परिग्रहत्वा निव सिमाप्तिप्रत्येकं साधनमनन्यबाधनं नाग्न्यं विभ्रतः मनोविक्रियाविलुप्तिविरहात स्त्रीरूपाण्यन्त्यताशुचि - वुणपरूपेण भावयतः रात्रि दिवं ब्रह्मचर्यमखण्ड मातिष्ठमानस्याऽचल व्रत धारण मनद्यमवगन्तव्यम् । ( सर्वार्थ सिद्ध पृ० २८५ ) इन पक्तियों का आशय यही है कि- निर्विकार बालक के समान नग्नरूप धारण करता, जिस नग्नरूप में किसी से वस्त्रादि की याचना नहीं की जाती है । इसी प्रकार वस्त्रों की रक्षा, प्रज्ञालन आदि से उन्न उत्पन्न हिंसादि दोष भी नग्नता में नहीं आते है । नग्नता निष्परिग्रहता, परिग्रह -त्याग का स्वरूप है और वह मोक्ष प्राप्ति के लिये एक मुख्य साधन है। किसी जीव को इससे बाधा भी नहीं आती है । इस नग्नता से मन में कोई विचार भाव भी जागृत नहीं होता । नग्न मुनि स्त्रियों को अत्यन्त अपवित्र एवं निद्य सममता है। और रात दिन अखण्ड निर्दोष ब्रह्मचर्य धारण करता है। ऐसा ही नग्न रहने वाला मुनि अचेल व्रतधारी सर्वथा निर्दोष और निष्परिग्रही कहलाता है । ऐसा ही कथन राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में है । इन सब शास्त्रीय प्रमाणों से यह निर्विवाद सिद्ध है कि स्वत्याग
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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