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________________ [८] अर्थ से सर्वथा विपरीत है। यथा v गंधचा लाघवमप्पडिलिहरणं च गदभयत्तं च । सं सज्जपरिहारो परिक्रम्म विवज्जणा चैव ॥ ( भगवती आराधना ८३ गाथा ) इस गाथा का अर्थ यह है कि परिग्रह का त्याग करने से मुनीश्वरों में लघुता आती है, अर्थात् जैसे परिग्रह वाले मनुष्य की छाती पर एक पर्वत के समान बोझ सा बैठा रहता है वैसा बखादि रहित नग्न साधु के कोई बोझ नहीं रहता है । जिस प्रकार सत्र वाले को वस्त्रों का सोधना उन्हें स्वच्छ रखना आदि चिन्ता है, करनी पड़ती वैसी चिन्ता दिगम्बर मुनियों को नहीं करनी पड़ती, कारण उनके मयूरपिच्छिका मात्र रहती है । जिस प्रकार वस्त्रधारी को सदैव भय रहता है, उन की सम्हाल रक्षा करनी पड़ती है, वैसा भय नम साधु के नहीं होता है। सत्र को जूएं लीक आदि जीवों का परिवार और बों को धोना आदि आरम्भ करना पड़ता है, परन्तु निर्मन्थ दिगम्बर मुनि को ये सब आरम्भ नहीं करने पड़ते हैं । तथा धारण करने वालों को, उनके फट जाने पर या खो जाने पर दूसरे वस्त्रों की याचना करनी पड़ती है। उन्हें सीना, सुखाना, धोना श्रादि क्रियाओं में समय लगाना पड़ता है, साथ ही आरम्भादि-जनित प्रमाद व हिंसा का पात्र बनना पड़ता है, सामायिक आदि के धर्मसाधन में विघ्न, बाधा एवं आकुलता हो जाती है, उस प्रकार की कोई बाधा दिगम्बर नम
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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