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________________ [ ८६ ] जाता है तब भक्त - प्रत्याख्यानं समाधि के समय सा उत्सगँ - लिंग, नम रूप में रहने वाले मुनिराजों को वस्त्र धारण करने की आज्ञा हो सकती है क्या ? गृहस्थ तो वस्त्र छोड़े, जो सदा पहने रहता है और मुनिराज जो सदा नम रहते हैं वे समाधिमरण के त्यागमय समय में और ममत्वभात्र सर्वथा छोड़ने के समय में उलटे वस्त्र धारण करें ? इतना स्पष्ट अर्थ होने पर भी प्रो० सा० ने जो मुनि का वस्त्र धारण करना भी इस गाथा से प्रगट किया है सो इस गाथा के अर्थ से सर्वथा विपरीत है जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । ७६ वीं गाथा में सन्यास समय में गृहस्थ का ही अपवाद लिंग अर्थात् सवत्र वेष धारण करने की आशा है । मुनियों के लिये सर्वथा नहीं है, यह बात उसी गाथा के पदोंसे स्पष्ट हो जाती है । और वही बात ७७ वीं गाथा से भी स्पष्ट हो जाती है । पाठकों की जानकारी के लिये हम यहां पर ७७ वीं गाथा भी रख देते हैं I उस्सग्गियलिंगकदृस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव । ववादियलिगसवि पसत्थ मुवसग्गियं लिंग ॥ ( भगवती आराधना गा० ७७ ) अर्थात् समस्त वस्त्रादि परिग्रह के त्याग को ( नम रूप को ) उत्सर्गलिंग कहते हैं । मुनिगण उत्सर्गलिंगधारी ही होते हैं, जिस समय वे मुनिगण भक्त - प्रत्याख्यान सन्यास
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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