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________________ ८ और अहिंसा के परम उपासक के जीवन में मासाशन का मेल बैठ ही नहीं सकता है यह हमारी धारणा जैसे आज है वैसे प्राचीनकाल मे भी थी । यह भी एक प्रश्न बारबार सामने आता है कि जिस प्रकार भगवान् बुद्ध ने मांस खाया यदि उसी प्रकार भगवान् महावीर ने भी खाया तथा जिस प्रकार आज बुद्ध के अनुयायी मासाशन करते है उस प्रकार कभी-कभी जैन श्रमणों ने और गृहस्थों ने भी किया, तो अहिंसा के आचार मे भगवान् महावीर और उनके अनुयायी की इतरजनो से क्या विशेषता रही ? ये और ऐसे अनेक प्रश्न अहिसा में सम्पूर्ण निष्ठा रखने वालो के सामने आते है । अतएव उनका कालानुसारी समाघान जरूरी है । पूर्वाचार्यो ने तो उन-उन पाठो मे उन शब्दो का वनस्पतिपरक अर्थ भी होता है ऐसा कहकर छुट्टी ले ली, किन्तु इससे पूरा समाधान किसी के मन मे होता नही और प्रश्न बना ही रहता है । आधुनिक काल मे जब त्याग की अपेक्षा भोग की ओर ही सहज झुकाव होता है, तब ऐसे पाठ मानव मन को अहिसा निष्ठा मे विचलित कर दें और वह त्याग की अपेक्षा भोग का मार्ग ले, यह होना स्वाभाविक है । इस दृष्टि से उन पाठों का पुनवचार होना जरूरी है, ऐसा समझकर लेखक ने जो यह प्रयत्न किया है वह सराहनीय और विचारणीय है । ---- लेखक ने विविध प्रमाण देकर भरसक प्रयत्न किया है कि उन सभी पाठो मे मास का कोई सम्बन्ध ही नही है । अनेक कोष और शास्त्रो से यह सिद्ध किया है कि उन शब्दो का वनस्पतिपरक अर्थ किस प्रकार होता है । इसे पढ़कर अस्थिर चित्तवालो की अहिंसा निष्ठा दृढ होगी - इसमे संदेह नहीं है, और आक्षेप करनेवालो के लिए भी नयी सामग्री उपस्थित की गई है, जो उनके विचार को बदल भी सकती है। इस दृष्टि से लेखक ने महत् पुण्य की कमाई की है और एतदर्थ हम सभी अहिसा निष्ठा रखनेवालो के वे धन्यवाद के पात्र है । - मुनि पुण्यविजय
SR No.010084
Book TitleBhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1964
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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