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________________ दीक्षा और तप कौडिण्य गोत्रीय क्षत्रिय राजा समरवार अपरनाम नरवीर की पुत्री यशोदा से उनका विवाह कर दिया। उससे इनकी एक पुत्री का जन्म हुआ जिसके दो नाम थे अणुज्जा और प्रियदर्शन | जिसका विवाह महावीर के भानेज जमाली के साथ हुआ था। बाद में इन दोनों ने अनेक क्षत्रियों और क्षत्रियानियों के साथ भगवान महावीर से दीक्षाएं ग्रहण की थीं। 7 ८ दीक्षा व तपस्या भगवान महावीर के माता-पिता के देहावसान के दो वर्ष बाद तीस वर्ष की आयु में मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन अन्तिम चौथे प्रहर में प्रवृज्या (दीक्षा) ग्रहण की। उनकी प्रवृज्या का स्वरूप यह था । वे गृहस्थ त्याग कर क्षत्रियकुंडपुर के समीपवर्ती ज्ञातृखंड उद्यान में चले गये। वहां जाकर उन्होंने अपने समस्त आभूषण वस्त्रादि त्याग दिये, अपने हाथों से अपने केसों को उखाड़ फैंका। देवेन्द्र का दिया हुआ वस्त्र अपने बांये कंधे पर डाल दिया। उस दिन छठ (दो उपवास) तप के साथ यहां से कुमारग्राम जाकर आप सारी रात ध्यानारूढ़ रहे । देवेन्द्र का दिया हुआ देवदूष्य वस्त्र भी तेरह मास के बाद गिर गया। फिर वे सदा नग्न रहे । पश्चात् देश-देशान्तरो में भ्रमण करने लगे। वे निवास तो वन उपवनों में करते थे और ध्यान और तपस्या में लीन रहते थे । 'अपनी तपस्या के पारणे (व्रत खोलने) के दिन आप ग्राम अथवा नगर में प्रवेश करके भिक्षा से आहार हाथों में लेकर करते थे। वह भी दिन में मात्र एक बार ही लेते थे। वे ध्यान में आत्मचिन्तन तथा समता भाव की साधना पद्मासन अथवा खड़गासन में खड़े हुए नासाग्र दृष्टि रखकर करते थे । १. लेषमात्र भी हिंसा न करना। २. तृण मात्र भी परायी वस्तु का अपहरण नहीं करना। ३. लेषमात्र भी असत्य नहीं बोलना । ४. मैथुन की कामना को लेषमात्र भी स्थान नहीं देना । ५. किसी भी प्रकार की चल-अचल सम्पत्ति रूप परिग्रह नहीं रखना। रात्रि भोजन कदापि नहीं करना । यही उनके महाव्रत थे। इन निषेधात्मक यमों या व्रतों के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं (उपसर्गों) को समता शान्ति और धैर्य पूर्वक सहन करते थे । गृह-हीन, निराश्रय, वस्त्रहीन, धनधान्य हीन त्यागी केलिए प्राकृतिक उत्पन्न होने वाली जैसे भूख, प्यास, शीत, ऊष्ण, डांस, मच्छर आदि की बाधाएं जो परिषहः कही जाती हैं उन्हें समता भाव से सहन करना। इस प्रकार ध्यान, आत्मचिंतन, समता और तपस्या करते हुए उन्होंने बारह वर्ष छः महीने पन्द्रह दिन अपनी प्रवृज्या का समय व्यतीत किया। इतने समय में उन्होंने मात्र तीन सौ
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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