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________________ (xxVI) धनकवेर, अपने-आप को दृढ़ सम्यगदष्टि, बैनसंघ के अनरागी, तीर्थसंरक्षक होने का दम भरने वाले श्रावक-श्राविकायें होने का गौरव मानते हुए भी आजतक उनमें से किसी की कुंभकरणी नींद नहीं खुली। उनकी ऐसी उपेक्षा-वृत्ति को देखते हुए दिल कांप उठता ३. अखिल-भारतीय जैन श्वेतांबर कान्फोस, आनन्दजी कल्याणजी की पढ़ी, जिनका मुख्य उद्देश्य ही जिनशासन एवं तीर्थ मंग्क्षण का है, वे भी आजतक हाथ पर हाथ रख कर मौन माधे क्यों बैठ रहे हैं? इन्होने प्रांत-मान्यता के विरोध में और वास्तविक जन्मस्थान के समर्थन में प्रेम और प्लेटफार्म में प्रचार करने पर ध्यान क्यों नहीं दिया? पाठ्यपुस्तकों में प्रांत मान्यताओं के भाग को क्यों नही हटावाया। ४ इस को झुठलाया नहीं जा सकता कि मगध जनपद मे लचआड के निकट कंडपरनगर (क्षत्रियकड) ही भगवान महावीर का वास्तविक जन्मस्थान है। जहां उनके च्यवन, जन्म, दीक्षा तीन कल्याणक हा थे और उन्होंन नीम व गहवाम भी किया था। इसका प्राचीन जैनागम, माहित्य, प्रगतत्व, भगोल, भतत्वविद्या, भाषाशास्त्र, नर्क तथा तीर्थमालाएं आदि निविंगेध एकमत में समर्थन करते है। ५ पर आजतक ऐसा कभी किमी ने भी नहीं मोचा कि भगवान महावीर के वैशाली जन्मस्थान की मान्यता दृढ हो जाने से क्या भयकर परिणाम होगा प्राचीन तीर्थ इम क्षेत्र के विच्छेद हो जायेंगे। ६.आज मे ३७-३८ वर्ष पहले नि श्री दर्शविजय जी (विपी) ने शोधपस्तक लिखकर प्रकाशित कराई थी। जिम में मप्रमाण सिद्ध किया था कि लच्छाद के निकट क्षत्रियकंड ही भगवान महावीर का जन्मस्थान है। वैशाली की मान्यता प्रान है। पर खेद है कि उस का भी मवंत्र प्रचार नहीं हो पाया। चाहिये नो यह था देशी-विदेशी मव भाषाओं में भाषातर करवा कर इस का मवंव्यापक प्रचार किया जाता। मी कभणी निद्रा किस काम की जिसमें अपना मवम्व ही लट जाय। भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी भगवान महावीर की पच्चीसवी निवांण शताब्दी भारतवप के कान-कोन म बडे आडम्बर ठाट-बाट और धम-धाम में गाट्रीय म्नर में मनायी गयी है। इस उपलक्ष में भारत मग्कार और जनसमाज ने कगंडो रुपये खर्च किये। परन्त कए जैनाचार्यों और उनके भगतो ने इम का इट कर विरोध भी किया। जिसमें हजागे लावा म्पयं म्वाहा किये गये। आश्चयं तो इस बान का है कि भगवान महावीर के जन्मस्थान के प्रचार-प्रमार की तरफ दोनो पक्षी मे मे किमी का लक्ष्य ही नहीं गया। चाहिये तो यह था कि भगवान महावीर के जन्मस्थान. दीक्षा. केवलजान और निर्माणस्थान एवं जहा-जहां भी प्राचीनकाल में जैनतीथं विद्यमान है उन्हें विचंद्रद होने में पहले ही उनके मरक्षण और विकाम केलिये प्लेटफार्म और प्रेम के माध्यम में मंगठिनम्प में तन-मन-धन में व्यापक महयोग दिया जाना, जिसमे ये प्राचीन महानीथं मदा-मवंदा मुर्गक्षत रहने में मक्षम होते। भगवान महावीर के जन्मस्थान इम क्षत्रियकंड ग्रंथ के विषय में डेढ़ वर्ष पूर्व जब मैंने भगवान महावीर के जन्मस्थान पर शोधग्रंथ लिखने का निश्चय किया तो विचार
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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