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________________ . १४० श्रमण संस्कृति की विशेषताएं कहलायी। प्राचीनयुग की भाषामागधी या अर्द्धमागधी प्राकृत थी। जो यहां की लोक भाषा थी जैन श्रमण तीर्थंकर का उपदेश इसी भाषा में होता है। श्रमण संस्कृति की विशेषताएं १. इस धार्मिक और सांस्कृतिक परम्परा के प्रस्तोता जितेन्द्रिय होने के कारण जिन, जिनेंद्र, या जिनेश्वर २. समस्त पूज्य गुणों के युक्त होने से अर्हत् ३. निरन्तर योगपूर्वक साधना करते हुए कैवल्य प्राप्त करने के कारण वातरशना, ४. व्रत पूर्वक सदाचरण के मार्ग पर आरूढ़ होने के कारण व्रात्य, ५. समस्त अंतरंग और बहिरंग से मुक्त होने से निथ, ६. सम्पूर्ण समत्व के साधक और उदघोषक होने के कारण समन ७. स्वेच्छा एवं श्रमपूर्वक तप-त्याग-संयम का मार्ग अपनाने के कारण श्रमष ८.संसार को दुःखरूप जान और मानकर उससे पार होने केलिये धर्मरूपी तीर्थ का उद्घाटन करने के कारण तीर्थकर, ९. रागद्वेष रूपी आंतरिक शत्रुओं पर विजय पाने के कारण अरिहंत १०. सब भवबीजाकर क्षीण करने के कारण अरुहंत ११. चार घातियां कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त करने के कारण वीतराग सर्वत्र अहीत कहलाते है। ये सब गुण जैनधर्मप्रवर्तक तीर्थंकरों के होते है। १. यह आर्हतों की परम्परा अहिंसा पर आधारित- कदाचरण निवृत्ति प्रधान तथा सदाचार प्रवृत्तिप्रधान है। २. मनुष्य के बीच से किसी प्रकार का ऊंच-नीच आदि भेदभाव इसे अभिष्ठ नहीं है, यहां तक कि क्षत्रिय-ब्राह्मण-वैश्य-शूद्र-वर्ण, स्त्री-पुरुष और नपुंसक तीनों में से कोई भी मानव-शरीरधारी परमसाधाना से मोक्ष निर्वाण तक प्राप्त कर सकता है। ३. सभी प्राणियों का हित सम्पादन एवं सर्वोदयमार्ग का प्रयोजक है। ४. इसकी दृष्टि उदार, सहिष्ण, और अनेकान्तिक है, इससे कदाग्रह दूर रहता है ५. आज्ञा प्रधानता की अपेक्षा परीक्षा प्रधानता पर बल देता है। ६. स्वपुरुषार्थ द्वारा परमप्रातव्य की प्राप्ति इसका लक्ष्य है। ७. यह वेदों, वैदिकहिंसा और वैदिकक्रियाकांडों का विरोधी है। साधना और तपस्या के ये प्रयोग मगध में भी हुआ करते थे इन्हीं एतिहासिक कारणों से जैनों ने मगध को पुण्यभूमि माना और वैदिक ब्राह्मणों केलिए पापभूमि हो गया। महाभारतोत्तर काल के श्रमणधर्म पुनरुत्थान आन्दोलनका प्रधान केन्द्र मगध रहा और तदनन्तर लगभग भगवान महावीर के बाद दो हजार साल तक इस प्रदेश को जैनधर्म का मुख्यगढ़ रहने का सौभाग्य प्राप्त रहा। इसलिए
SR No.010082
Book TitleBhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1989
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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