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________________ १८:ब तथा जेमधर्म विनमें कम और क्लेश मात्रय प्रहण करते हैं वे उपषि है। जो उपपि भी हैं और शेष भी रहते है वे उपषिशेष कहलाते हैं। वस्तुत अहत् व्यक्ति के पांच स्कन्ध हो उपधिशेष ह। निर्वाण का लाभ हो जाने क्लेशो का क्षय हो जाने तथा क्लेशवश नवीन कर्मों का सम्पादन न करन पर भी पुराने कर्मों के विपाक (फल) के रूप में उनकी स्थिति तब तक बनी रहती ह या उनको धारा का प्रवाह तब तक चलता रहता है जब तक आयु का क्षय नही होता यही सोपाधिशेष अवस्था है। जब अहत व्यक्ति का आयु भय से मरण हो जाता है तब उसके सभी प्रकार के नाम धर्मों की सन्तति तथा रूप धर्मों की सतति सवदा के लिए सवथा निरुद्ध हो जाती है । उसके पांचो स्कन्धो का निरोष हो जाता है। जिस अवस्था म उपषियोष कहलानेवाले पांच स्कन्धो का भी अभाव हो जाता है वह निर्वाण धातु अनुपषिशेष निर्वाण कहलाती है। जन-परम्परा में भी मुक्ति के इन दो रूपो की कल्पना है वहां वे भाव मोक्ष और द्रव्य मोक्ष कही गयी है। भाव मोक्ष की अवस्था के प्रतीक अरिहत और ग्य मोक्ष की अवस्था के प्रतीक सिद्ध मान गये ह । उत्तराध्ययनसूत्र म मोक्ष और निर्वाण शब्दो का दो भिन्न भिन्न अर्थो म प्रयोग हुआ है। उनमें मोक्ष को कारण और निर्वाण को उसका कार्य बताया गया है। इस सदभ म माक्ष का अथ भाव मोक्ष या राग-दूष से मुक्ति है और द्रव्य मोक्ष का अथ निर्वाण या मरणोत्तर मुक्ति को प्राप्ति है । निर्वाण के विशेषण यद्यपि मपद आदि बद्ध वचनो में निर्वाण के स्वरूप अथवा आकार का स्पष्ट विवचन उपल ध नही होता फिर भी उसके अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते ह जिनसे निर्वाण के स्वरूप का आकलन करने मे बडो सुविधा होती है जैसे-अमृत अजर अमर अरूप नि य असाधारण निष्प्रपच अच्युत अयन्न असस्कृत लोकोत्तर निर्वाण आदि । हेतु प्रत्ययों से उत्पन्न होने के कारण निर्वाण अमृत असंस्कृत मजर एव अमर कहलाता है । जो त्पन्न होता है उसका विनाश ध्रुव है । निर्वाण उत्पन्न नहीं होता १ विसुद्धिमग्ग १६७३ पृ ३५६ । २ दीघनिकाय द्वितीय भाग पृ १२ । ३ उत्सराध्ययन २८१३ तथा जन बौद्ध तथा गीता के आचार-दशनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग १ १ ४१५ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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