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________________ ५ बोडसपा बनधर्म चलती रहती है जब तक निर्वाण प्राप्त नही कर लिया जाता। अत इस सिवान्त से चार्वाको का वह मत भी निराकृत हो जाता है जिसके अनुसार जीवन केवल वर्तमान ही है । इस तरह उच्छदवाद का भी प्रतीत्यसमत्पाद द्वारा निषष कर दिया जाता है । साथ ही अहेतुकवाद स्वभाववाद प्रक्रियावाद आदि अनक मतवादो के लिए कोई स्थान नही रह जाता। निर्वचन प्रतीत्यसमुत्पाद म प्रति का अथ प्राप्ति ह । इस उपसग के साथ गत्यथक इण धातु का योग है । उपसर्ग की वजह से पातु का अर्थ बदल जाता है । फलत प्रति-इ का अथ प्राप्ति होता है और क्त्वा प्रत्यय के योग से निष्पन्न प्रतीत्य का अथ हैप्राप्त करके । पद धातु सत्ताथक है। सम उत् उपसगपूवक इसका अर्थ प्रादु भर्भाव है । अत प्रतीत्यसमत्पाद का अथ हेतु प्रत्ययो को प्राप्त कर कार्य का उत्पाद होता है। इससे प्रतीत्यसमत्पाद की बौद्धधम म स्पष्ट महत्ता दृष्टिगोचर होती है। पावशाग प्रतीत्यसमुत्पाद प्रतोत्यसमत्पाद सिक्षान्त द्वारा ही बुद्ध ने सासारिक जीवन की सम्यक व्याख्या की और दुख का कारण समझाया। दुख अकारण नही सकारण है और कारण दूर करने पर दुख से मक्ति पायी जा सकती ह । आयसस्यों के माध्यम से सक्षप में बद्ध न समझाया कि दुख का कारण तृष्णा है। परन्तु इसी कारण प्रक्रिया के अन्वेषण का विकसित रूप १२ निदानों की शृखला में दिखाई पडता है। प्रती यसमुत्पाद १२ निदान या अग यथाथ म कारणो या प्रत्ययों की ही शृखला ह । इन १२ अगो का वणन बौद्ध ग्रन्थो में इस प्रकार मिलता है- अविद्या प्रत्यय से संस्कार सस्कार प्रत्यय से विज्ञान विज्ञान प्रयय से नामरूप नामरूप-प्रत्यय से षडायतन षडायतन प्रत्यय से स्पश स्पश प्रत्यय से वेदना वेदना प्रत्यय से तृष्णा तृष्णा-प्रत्यय से उपादान उपादान प्रयय से भव भव प्रत्यय से जाति जाति प्रत्यय से जरा मरण शोक परिदेव दु ख दौमनस्य एव उपायास होते हैं। इस प्रकार समस्त दुख स्कन्ध का समुदय होता ह यही प्रतीत्यसमुत्पाद है। बद्ध के उपदेशों में द्वादशाङ्ग कही सक्षिप्त और कही विस्तृत है कही एक से पारह कही सात से बारह कही बारह से एक कही आठ से एक कही तीन से बारह १ बौख-संस्कृति का इतिहास भास्कर भोगबद्र जैन १ ९४ । २ अभिधर्मकोश भाष्य ३।२८ पृ १३८ । ३ विनयपिटक महापग १ पृ १ दीघनिकाय २।५५ १ ४४ सयुत्तनिकाय २।१ पृ १ बिसुविमग्ग १७१२ १ २६२ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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