SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२. बोड तथा जैनधर्म त्रिलक्षण अनित्य दुख अनात्म बौद्ध-दशन ससार को अनित्य दुख और अनात्म इन तीन दृष्टियो से देखता ह । बौद्ध सभी पदार्थों को अनित्य मानते है। मनित्य का अथ विनाशशील माना जाता है । लेकिन यदि अनित्य का अथ विनाशी करग तो हम फिर उच्छदवाद की ओर होंग। वस्तुत अनित्य का अथ है परिवतनशील। परिवतन और विनाश अलग भक्षण हैं । विनाश में अभाव हो जाता है परिवतन म वह पुन एक नये रूप में उपस्थित हो जाता है । जसे बीज पौध के रूप म परिवर्तित हो जाता ह विनष्ट नही होता । सभी सस्कार क्षणिक है यह बौद्धो का प्रसिद्ध सिद्धान्त है । शास्ता ने भिक्षाओं को अन्तिम प्ररणा देत हुए कहा सभी सस्कार अनित्य ( नाशवान ) है अत क्षण मात्र भी प्रमाद न कर जीवन के लक्ष्य का सम्पादन करो। यह सिद्धान्त भी प्रतीत्य समुत्पाद से ही निकलता है क्योकि काय कारण या हेतु प्रययवाद का यह नियम सभी पर लागू होता है । जो प्रती यसमत्पन्न होता है उसीकी सत्ता होती है और वह अवश्य क्षणिक होता है । जो क्षणिक नहीं होगा वह निय हो जायेगा और जो नित्य होगा वह हेतुसमुत्पन्न न होगा । बौद्ध दशन म अनि य और क्षणिक का मतलब है सतत परिवर्तनशील । अथक्रियाकारित्व ही वस्तु का लक्षण है जो क्षणिक और प्रतीत्यसमुत्पन वस्तुओ मे ही सम्भव ह न कि नि य और निरपेय वस्तुओ म । इस प्रकार प्रतीत्यसमत्पाद से अनित्यतावाद प्रतिफलित होता है । ससार के प्रत्येक पदाथ को अनित्य एव नाशवान् मानना अनित्य भावना है। धन सम्पत्ति कुरब परिवार अधिकार वभव सभी कुछ क्षणभगुर ह । बुद्ध ने अपने उपासकों को अनेक प्रकार से अनि यता का बोध कराया है। संसार में जो कुछ भी है वह सब अनित्य है सदा एक समान रहनवाला नहीं है। सभी उत्पत्ति स्थिति और नाश होने के तीन क्षणो म विभक्त है। रूप वेदना सज्ञा सस्कार और विज्ञान सभी अनित्य है। धम्मपद में कहा गया है कि ससार के सब पदार्थ अनित्य हैं जब बुद्धिमान पुरुष इस तरह जान जाता है तब वह दुख नहीं पाता। यह माग विशुद्धि का है। ससार का प्रतिदिन का अनुभव स्पष्टत बतलाता है कि यहां सवत्र दुख का १ दीघनिकाय द्वितीय भाग प ११९ । २ सयुत्तनिकाय २१ १२१ दुसरा भाग पृ ३३ । ३ सम्बे सङ्खारा अनिचा ति यदापन्नाय पस्सति । अपमिबिन्दति दुक्खे एसमग्गो विसुखिया' ।। धम्मपद २७७॥
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy