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________________ अमिमा २१ इन्द्रियों की रायद्वेषम प्रवृत्ति को प्रमादस्थानीय मानकर इस अध्ययन का नाम प्रमावस्थानीय रखा गया है। अशुभ प्रवृत्तियां प्रमावस्थान है। प्रमावस्थान का अथ है-वे काय जिन कार्यों से साधना में विघ्न उपस्थित होता है और सापक की प्रगति रुक जाती है। कमप्रकृति नामक तैतीसव अध्ययन म २५ गापामों के अन्तगत कर्मों के आठ भेदों तथा प्रभेदों को बतलाया गया है। चाँतीसवें लेश्या अध्ययन म ६१ गाथाओं के अन्तगत लेश्यामओ के प्रकार तथा उनके लक्षणो को बतलाया गया है। पत्तीसव अध्ययन का नाम अनगार है। इसम २१ गाथाय है जिनके अन्तगत साध के निवासस्थान भोजन-ग्रहण विषि साधना विधि आदि बातों का वणन ह । छत्तीसवें अध्ययन में जीव और अजीव का सविस्तार वणन होने से इसका नाम जीवाजीव विभक्ति रखा गया है । इसम २६९ गापाय है। इस तरह इन अध्ययनो म मुख्य रूप से ससार को असारता तथा साघु के आचार का वणन किया गया है। इससे इसके महत्त्व और प्राचीनता दोनो का बोष होता है । इस महत्त्व के कारण ही इसे मूलसूत्रो अन्यो म गिना जाता है। इस महत्व के कारण ही कालान्तर में इस पर अनक टोकाय आदि लिखी गयी। जैकोबी शा न्टियर विष्टरनित्स आदि विद्वानो ने इसकी तुलना बोडों के सुत्तनिपात जातक और धम्मपद आदि प्राचीन ग्रयो से की है। उदाहरणस्वरूप राजा नमि को बौद्ध-प्रथों में प्रत्यक बुद्ध मानकर उसकी कठोर तपस्या का वर्णन किया गया है । हरिकेशिमुनि १ शान्टियर उ भमिका पृ ४ तथा देखें उ आत्माराम टीका भूमिका २२-२५ जैन-साहित्य का बृहद इतिहास भाग २ प १४७ १५२ १५६ १५७ १५९ १६३ १६५ तथा १६७ । धम्मपद १२।४ ८४ उत्तराध्ययन ११५ ९/३४ ८७ ९.४ ५।११ २६०१९ २६।२५ २६४ २५।२७ २५।२९ २५४३४
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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