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________________ २४ गोडवा जनधर्म दोनो में अनेक कहानियां समान हैं। आश्चय की बात है कि जो कहानियां यहाँ दी गयी है और जिनके आधार पर धम्मपद की प्रत्यक गाथा को समझाया गया है उन्हें भी साक्षात बुद्धोपदेश ही यहां बतलाया गया है जो ऐतिहासिक रूप से ठीक नही हो सकता । फिर भी धम्मपदटठकथा की कहानियो म जातक के समान ही प्राचीन भार तीय जीवन विशेषत सामा य जनता के जीवन की पूरी झलक मिलती है और भार वीय कथा-साहित्य म उसका भी एक स्थान है। जैन-साहित्य में उत्तराध्ययनसत्र उत्तराध्ययन शब्द दो शब्दो के योग से बना है-उत्तर + अध्ययन अर्थात् प्रधान और पश्चाद्भावी अध्ययन । तापय यह है कि भगवान महावीर ने अपने जीवन के उत्तरकाल म निर्वाण के पूर्व जो उपदेश दिया था उन्ही उपदेशो का सकलन इस ग्रन्थ म हुआ है। यह सूत्र अधमागधी प्राकृत भाषा म निबद्ध एक जन आगम प्रन्थ है। यह एक धार्मिक काव्य ग्रन्थ है । इसम नवदीक्षित साधुओ के सामान्य आचार विचार आदि का वणन किया गया है। कुछ स्थानो पर सामान्य मूलभत सिद्धान्तों की चर्चा की गयी है। इसका स्थान मूल सूत्रो म प्रथम और महत्त्वपण है । मत मूलसूत्रो की सख्या और मामो म पर्याप्त अन्तर पाया जाता है फिर भी उत्तरा ध्ययन के मूल सूत्र होन म किसीको सदेह नही है तथा क्रम म अन्तर होने पर भी प्राय सभी उत्तराध्ययन को प्रथम मूलसूत्र मानत है । जाल शान्टियर ने महावीर के शब्द होने से इन्ह मूलसूत्र कहा है। परन्तु यह कथन ठीक नही है क्योकि सभी प्रन्यो का सम्बध महावीर के वचनो से ह । प्रो गरीनो न इन पर कई टीकाओं के लिखे जाने से मल प्रथ कहा ह । परन्तु यह युक्तिसगत नही है क्योकि प्राय सभी ग्रन्थों पर टीकाय लिखी गयी है । डा शबिंग न साध-जीवन के मूलभत नियमों के प्रति पादक होन के कारण मूलसूत्र कहा है। प्रो एच आर कापडिया नमीचन्द्रजी शास्त्री आदि विद्वान् कुछ सशोषन के साथ इस मिद्धात के पक्ष में है। १ जगदीशचन्द्र जैन-साहित्य का बृहद् इतिहास भाग २ पृ १४४ । २ शापन्टियर उ भमिका पृ ३२ तथा कापडिया एच आर हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ जैन्स पृ ४२ । ३ वही प ४२। ४ आत्माराम दशवकालिकसूत्र भमिका प ३ तथा हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरचर ऑफ जैन्स पृ ४२ । ५ शास्त्री नेमीचन्द्र प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ५ १९२ हिस्ट्री पॉफ दी केनोनिकल लिट्रेचर बॉफ अन्स १४ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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