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________________ १५८ बोबसपा समयम भिक्षु न केवल कृत कारित और अनुमोदित हिंसा से बचते है वरन् वे औदेशिक हिंसा से भी बचते है। जैन भिक्ष के लिए मन वचन और काय से हिंसा करना-करवाना अथवा हिंसा का अनुमोदन करना तो निषिद्ध ह ही लेकिन साथ ही यदि कोई भिक्ष के निमित्त से भी हिंसा करता है और भिक्ष को यह ज्ञात हो जाता है कि उसके निमित्त से हिंसा की गई है तो एसे आहार आदि का ग्रहण भी भिक्ष के लिए निषिद्ध माना गया है। फिर भी बौद्ध और जैन-परम्परा म प्रमुख अन्तर यह है कि बुद्ध निमन्त्रित भिक्षा को स्वीकार करते थे जब कि जन श्रमण किसी भी प्रकार काम त्रण स्वीकार नही करत थे। बुद्ध औद्दशिक प्राणीवघ के द्वारा निमित्त मास आदि को तो निषिद्ध मानते थे लेकिन सामाय भोजन के सम्बन्ध म व औद्दशिकता का कोई विचार नहीं करत थ । वस्तुत इसका मूल कारण यह था कि बुद्ध अग्नि पानी आदि को जीवन यक्त नही मानते थे । अत सामा य भोजन के निर्माण म उ हैं औद्देशिक हिंसा का कोई दोष परिलक्षित नही हुआ और इसलिए निमत्रित भोजन का निषध नही किया गया । सय महावत के सदभ म दोनो परम्पराओ म मौलिक अन्तर यह ह कि बद अप्रिय सय वचन को हित बद्धि से बोलना वजित नही मानत है जब कि जन-परम्परा अप्रिय सत्य को भी हित बद्धि से बोलना वर्जित मानती है । अय शीलो के सम्बन्ध म सदान्तिक रूप से बौद्ध और जैन-परम्परा म कोई मलभत अन्तर नही है फिर भी जैन-परम्परा म अशीलो का पालन जितनी निष्ठा और कठोरतापूर्वक किया गया उतना बौद्ध परम्परा म नही । धम्मपद तथा उत्तराध्ययनसत्र के आधार पर पुण्य पाप की अवधारणा पुण्य मनुष्य के चरित्र की श्रेष्ठता का सूचक है। इसके विपरीत पाप चरित्र के नतिक पतन का चिह्न है। इच्छापूवक कतव्य पालन अथवा स कम से मनुष्य के चरित्र के नतिक उ कष म वृद्धि ही पुण्य हैं। नतिक नियमो के उल्लघन अथवा असत्कम से व्यक्ति के चरित्र से सम्बद्ध नतिक मूय का भय ही पाप है। पुण्य कत य पालन करके अजित नतिक योग्यता ह । जब यक्ति कतव्य से मंह मोडता है तब उसकी नैतिक योग्यता का ह्रास होता है । नतिक यो यता के इस क्षय को पाप कहा जाता ह । धम्मपद में कहा गया है पाप काय का न करना श्रष्ठ है । पाप-काय पीछ दुख देता ह पुण्य-काय करना श्रेष्ठ है जिसे करके मनुष्य दुखी नही होता। पुण्य और पाप चरित्र से सम्बद्ध है । पुण्य भावात्मक नतिक योग्यता है जब कि पाप १ नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक अध्ययन गुलाम मुहम्मद याह्या खां ५ ५८। २ अकत दुक्कत सेय्यो पछातपतिदुक्कत । कतन्थ सुकत सेय्यो य कस्वा नानुतप्पति ॥ धम्मपद ३१४।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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