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________________ बाधार पर समाधि या पद्धा की तुलना सम्यक दर्शन से और प्रज्ञा की तुलना सम्बक भान से की जा सकती है। ऊपर उल्लेख किया गया है कि अष्टांग मार्ग के सम्यकगाचा सम्बक-कति और सम्यक आजीव का अन्तर्भाव शील में सम्यक व्यायाम सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि का चित्त बवा या समाधि में और सम्यक सकल्प सपा सम्यक दृष्टि का प्रशा में होता है। यह भी लक्षित होता है कि यहाँ उत्तराध्ययन के सम्यक बशन और सम्यक ज्ञान बौखो के क्रमश समाधि और प्रज्ञा स्कन्ध में आते है वहीं बौद्धों का शील स्कघ उत्तराध्ययनसूत्र के सम्यक चारित्र में सरलता से अन्वभूत हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौख और जैन-परम्पराए न केवल अपने साधन मार्ग के प्रतिपादन म बल्कि सापनत्रय के विषय में भी एक समान दृष्टिकोण रखती है। पचशील सदाचार बौद्धधम की आधारशिला है। बौद्धधम में सदाचार को शील कहा जाता है । शील का पालन प्रत्यक बौद्धो के लिए आवश्यक है। जो व्यक्ति शीलों का पालन नहीं करता वह अपने को बौद्ध कहन का अधिकारी नही समझा जाता। शील से मन वाणी और काया ठीक होते हैं । सद्गुणो के धारण या शीलन के कारण ही उसे शील कहा जाता है । सक्षेप म शील का अर्थ है सब पापो का न करना पुष्य का सचय तथा अपन चित्त को परिशुद्धि रखना। बौद्ध त्रिशरण के अटल विश्वासी का शील ही मूलधन तथा शील हो मूल सबल है। इसलिए बौद्ध-सदाचार म आडम्बर को बिल्कुल स्थान नही दिया गया है । भगवान् ने कहा है कि जिसम आकाक्षाएँ बनी हुई हैं वह चाहे नगा रह चाहे जटा बढाए चाहे कोचड लपेट चाहे उपवास करे चाहे जमीन पर सोय चाहे धल लपेटे और चाह उकई बठे पर उसकी शुद्धि नहीं आती। असली शुद्धि तो शील-पालन से होती ह । धम्मपद म शीलवान् व्यक्ति के गुणों को बसलाते हुए तथागत न कहा है- पुण्य चन्दन तगर या चमेली किसीकी भी सुगन्ध १ सम्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पद । स-चित्त परियारपन एव बुदान सासन ॥ धम्मपद १८३। २ न नग्मचरिया न जटा न पडक । नानासकाण्डिलसायिका था। रजो वजल्ल उक्कुटिकप्पषान । सोधेन्ति मच्च अवितिष्पकका ॥ पम्मपद १४१ तुलनीय उत्तराध्यक्न ५२१ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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