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________________ १३४ बोड तवा गर्व हो विहार करना चाहिए। इससे बढकर उद्योग तथा स्वावलम्बन की शिक्षा दूसरी कोन हो सकती है। प्राय आर्य अष्टागिक मार्ग को तथागत के मूल उपदेशो में माना जाता है। श्रीमती रीज डविडस ने अष्टांगिक मार्ग को बद्ध की मूलदेशना का अग होने पर शका की है। अगुत्तरनिकाय के अष्टक निपात और दीघनिकाय के सगीति पर्यायसूत्र म माठ अग ( सम्यग्दष्टि ) आदि का उल्लेख न होने से इस मयता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। सम्भव ह कि आरम्भ म मध्यम मार्ग से अथ केवल दो अतियो का परिहार था और आठ अग बाद म जोड गय । लेकिन ये आठ अग ३७ बोधि पक्षीय धर्मों म भी गिनाये जाते हैं। कही-कही सप्ताङ्ग और दशाङ्ग मार्ग के रूप म भी इसका वर्णन पाया जाता है। इसलिए इसे मूल देशना से बहिमत नही किया जा सकता। इस स्थिति म अष्टागिक मार्ग को धमदेशना का मल भाग स्वीकार करने म कोई आपत्ति नही होनी चाहिए । मध्यमा प्रतिपदा ___ भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट माग मध्यममाग या मध्यमा प्रतिपदा कहलाता है क्योकि यह सैद्धान्तिक और यावहारिक दोनो दष्टियों से दोनो अन्तो का परिहार करता है । जो कहता है कि आमा ह वह शाश्वत दृष्टि से पूर्वानत म अनुपतित होता है । जो कहता है कि आमा नही है वह उच्छद दृष्टि के दूसरे मत म अनपतित होता है । शाश्वत और उच्छेदवाद दोनो अतो का परिहार कर भगवान मध्यमा प्रतिपद ( माग ) का उपदेश करते हैं । इसी तरह एक अन्त काम-सुखानुयोग है दूसरा अन्त आत्मक्लमषानुयोग ( शरीर को कठिन तप से पीडा देना) ह । भगवान दोनों अन्तों का परिहार करत है । भगवान कहते हैं कि देव और मनुष्य दो दृष्टियों से अनुगत रहते हैं। केवल चक्षष्मान ही यथाभत देखता है जब भव निरोध के लिए धम की देशना होती है तो उनका चित्त प्रसन्न नहीं होता। इस प्रकार वे इसी ओर रह जाते है । दूसर भव से जुगुप्सा कर विभव का अभिनन्दन करत है। वे मानते हैं कि उच्छद ही शाश्वत और प्रणीत है। वे अतिधावन करत ह । चक्षष्मान भत को भतत देखता है। वह भत के विराग निरोष के लिए प्रतिपन्न होता है। यह मध्यममाग माय अष्टा गिक माग ह । भगवान यह नही कहते कि मझ पर श्रद्धा रखकर बिना समझे ही मेरे १ शाक्य रीज डविडस टी डब्ल्य पृ ८९ । २ बौद्धधम के विकास का इतिहास प ११७ । ३ अभिधम्मत्यसग्गहो पर हिन्दी प्रकाशिनी व्याख्या १ ७८४ । ४ देखें दीघनिकाय ३३२५२ प १९४ २९२ २४ ।
SR No.010081
Book TitleBauddh tatha Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendranath Sinh
PublisherVishwavidyalaya Prakashan Varanasi
Publication Year1990
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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