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________________ बायू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ होकर कहा कि मैं अब कलकत्ता जाना चाहता हूँ, तीय ज्ञानपीठ को स्थापना, जैन साहित्य को शोधकोई 'अनेकान्त' के सम्पादन का उत्तरदायित्त्व ले खोज, सम्पादन और प्रकाशन के लिए ही हुई थी। तो मुझे शान्ति मिले । ग्रीष्मावकाश हो नुका था, ज्ञानपीठ ने वर्षों इस कर्तव्य का निर्वाह ईमानदारी में वीर-सेवा-मन्दिर में जाकर ठहर गया। उन्होंने से किया। स्वर्गीय पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य मुझे कार्य समझाया । कुछ विद्वानों के निबन्ध के निर्देशन में जो कार्य हुआ, उसका अपना एक प्रकाशन हेतू पाये हुए थे। बावजी के साथ विचार- प्रथक महत्त्व है। श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलोय विनिमय होता था। तब मैने जाना कि उनकी पकड़ भी इस दिशा में सजग, सावधान और रुचि सम्पन्न कितनी पैनी है और विद्वत्ता के क्षेत्र में कितनी बने रहे। किन्तु जैन ग्रन्थों के विक्रय की विकट सूक्ष्म पेंठ है । सस्ती विद्वत्ता उन्हें कभी नहीं रुचती। समस्या ने भारतीय ज्ञानपीठ के जैन वाङमय के कलकत्ता जाने के उपरान्त भी उनकी सम्मतियां प्रकाशन तक ही सीमित रहने के संकल को डिगा और निर्देशन सतत मिलते रहे । बाबूजी को तीत्र दिया । श्री लक्ष्मीनन्द्र जैन के सेक्रेटरी बनते ही अभिलाषा थी कि अनेकान्त एक उत्तम शोध पत्रिका लोकोदय ग्रन्थमाला का जन्म हमा। उससे नई के रूप में प्रकाशित हो, किन्तु उसके साथ कुछ ऐसी विधानों और विचारों को संजोये हिन्दी का सृजनापरिस्थितियां सम्बद्ध थी जिनसे बाबूजी विवश थे त्मक साहित्य प्रकाशित हो उठा। एकाकी नाटक, और मै तो निनांन परवश हूँ। बाबूजी ने बाबू छोटी-छोटी कहानियां, उपन्यास और कविता-संकलन जयभगवान जी, जो उस समय वीर-मेवा-मन्दिर धडल्ले से निकले । उनकी बिक्री होती है । अब ज्ञानके सेक्रटरी थे. को लिखा था कि डॉ० प्रेमसागर के पीट हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों को एक साथ विचार-विमर्श कर 'अनकान्त' को एक श्रेष्ठ प्रमुख संस्था है। मुझे या किसी जैन विद्वान को पत्रिका का रूप दें। उसी समय के पास-पाम बाबू उमके ऐमा होने में कोई मापन नहीं है। किन्तु जयभगवान के दिवावसान से वह कार्य सम्पन्न न हो साथ ही उसका मूल उद्देश्य भी धूमिल नहीं सका । 'प्रनकान्त' जैसे रूप में चल रहा था, होना चाहिए । प्रव देखा जाता है कि जैन-ग्रन्थों के बाबजी उससे सन्तुष्ट नहीं थे । उसे एक उनम का प्रति न वह रचि है और न सजगता । मैने बाबू प्राप्त हो. मेरी भी अभिलाषा है, मेरे ठोस सुझाव छोटेलालजी को एकाधिक बार भारतीय ज्ञानपीठ हैं, जिन्हें बाबूजी ठीक मानते थे, किन्तु उनके कार्या- की इस प्रवृति के प्रति गम्भीर रूप से सचिन्त होते न्वयन में विचित्र कठिनाइयाँ हैं, अतः एक हमस- देखा है। सभी दो-चार वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ भरी विवशता है। फिर भी 'अनेकान्त' में प्रकाशित में प्रकाशित कतिपय ऐसे जैन ग्रन्थ है जिनके लिये मेटर से विद्वान मन्तुष्ट हैं और अनुमन्यित्सुनो को यदि बाबूजी का कड़ा आदेश न होता तो शायद वहां पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो जाती है। इसी कारण से प्रकाशित ही न हो पाते । बाबूजी चाहते थे कि बाबूजी उसके संचालन से सहमत थे और 'अनेकान्त' भारतीय ज्ञानपीठ केवल भारत में ही नहीं, अपितु निकल रहा है । इस अनुच्छेद का तात्पर्य इतना ही समस्त एशिया महाद्वीप में जैन साहित्य का मानस्तम्भ है कि बाबूजी 'अनेकान्त' को जैनशोध का एक रोचक बन सके । मुझे पूरा विश्वास है कि यदि वे भाज पत्र बनाना चाहते थे। उनकी यह भावना जंन इस मंमार में होते तो उसे इस रूप में परिणत कर गोध-खोज में सतत लगे रहने का परिणाम थी। ही दम लेते । यदि भारतीय ज्ञानपीठ के सेक्रेटरी महोदय हिन्दी साहित्य और जैन साहित्य के मध्य भारतीय ज्ञानपीठ, काशी के डायरेक्टर्स में बाबू अपनी कचि निष्पक्ष भाव से मन्तुलित रख सके तो छोटेलालजी का नाम सबमे ऊपर था । मूलतः भार- भी बाबूजी की अभिलापा के पूर्ण होने के चिन्ह
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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