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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] [ १११ आगे पीछे कह्या जो दूसरा प्रस्तार, ताकी अपेक्षा प्रक्षपरिवर्तन कहिए अक्षसंचार, ताका अनुक्रम कहैं हैं - पढमक्खो अंतगदो, आदिगदे संकमेदि बिदियक्खो । दोण्णिवि गंतणंतं, आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ॥३६॥ प्रथमाक्ष अंतगतः श्रादिगते संक्रामति द्वितीयाक्षः । द्वापि गत्वांतमादिगते, संक्रामति तृतीयाक्षः ॥ ३९॥ - टीका पहिला प्रमाद का अक्ष कहिए भेद विकथा, सो आलाप का अनुक्रम कर अपने पर्यन्त जाइ, वहुरि वाहुडि करि अपने प्रथम स्थान को युगपत् प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कपाय, सो अपने दूसरे स्थान को प्राप्त होइ । भावार्थ - श्रालापनि विषे पहिले तो विकथा के भेदनि को पलटिए, क्रम तैं स्त्री, भक्त, राष्ट्र, अवनिपालकथा च्यारि आलापनि विषै कहिए । अर अन्य प्रमादनि का पहिला पहिला ही भेद इन चारो आलापनि विषै ग्रहण करिए । तहां पीछे पहिला विकथा प्रमाद अपना अंत अवनिपालकथा तहां पर्यंत जाइ, बाहुडि करि अपना स्त्रीकथारूप प्रथम भेद को जब प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद कषाय, सो अपना पहला स्थान क्रोध को छोडि, द्वितीय स्थान मान को प्राप्त होइ । बहुरि प्रथम प्रमाद का अक्ष पूर्वोक्त अनुक्रम करि संचार करता अपना पर्यंन्त कौ जाइ, बाहुडि करि सो युगपत् अपना प्रथम स्थान को जब प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, अपना तीसरा स्थान को प्राप्त होइ । भावार्थ - दूसरा कषाय प्रमाद दूसरा भेद मान को प्राप्त हुवा, तहां भी पूर्वोक्त प्रकार पहला भेद क्रम तै च्यारि आलापनि विषै क्रम ते पलटी, अपना पर्यंन्त भेद ताई जाइ, बाहुडि अपना प्रथम भेद स्त्रीकथा को प्राप्त होइ, तब कषाय प्रमाद अपना तीसरा भेद माया को प्राप्त हो है । बहुरि जैसे ही संचार करता, पलटता दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो जब अपने अत पर्यन्त भेद कौ प्राप्त होइ, तब प्रथम अक्ष विकथा, सो भी अपना पर्यन्त भेद कौ प्राप्त होइ तिष्ठ । भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार च्यारि आलाप माया विषे, च्यारि आलाप लोभ विषै भए कषाय अक्ष अपना पर्यन्त भेद लोभ, ताकौ प्राप्त भया । श्रर इनिविषे
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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