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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] [ १०३ मिथ्यादृष्टी हो है। जाते सूत्र का अश्रद्धान करि जिन आज्ञा का उल्लंघन का सुप्रसिद्धपना है, तीहि कारण ते मिथ्यादृष्टी हो है । प्रागै असंयतपना अर सम्यग्दृष्टीपना के सामानाधिकरण्य को दिखावै है - यो इंदियेसु विरदो, रणो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्तं, सम्माइठ्ठी अविरदोसो ॥२॥१ नो इंद्रियेषु विरतो, नो जीवे स्थावरे त्रसे वापि । यः श्रद्दधाति जिनोक्त, सम्यग्दृष्टिरविरतः सः ॥२९॥ टीका - जो जीव इद्रियविषयनि विषे नोविरत - विरति रहित है, बहुरि तैसै ही स्थावर, त्रस जीव की हिसा विर्ष भी नाही विरत है – त्याग रहित है । बहुरि जिन करि उपदेश्या प्रवचन को श्रद्धान करै है, सो जीव अविरत सम्यग्दृष्टी हो है । या करि असंयत, सोई सम्यग्दृष्टी, सो असयतसम्यग्दृष्टी है ऐसे समानाधिकरणपना दृढ कीया । बहुत विशेषणनि का एक वस्तु आधार होइ, तहां कर्मधारेय समास विष समानाधिरणपना जानना । बहुरि अपि शब्द करि ताकै सवेगादिक सम्यक्त्व के गुण भी याकै पाइए है, ऐसा सूचै है । बहुरि इहां जो अविरत विशेषण है, सो अंत्यदीपक समान जानना । जैसे छैहडै धरचा हुवा दीपक, पिछले सर्वपदार्थनि कौ प्रकाशै, तैसे इहा अविरत विशेषण नीचे के मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थाननि विर्षे अविरतपना को प्रकाशै है, ऐसा संबंध जानना। बहुरि अपि शब्द करि अनुकंपा भी है। भावार्थ-कोऊ जानेगा कि विषयनि विर्षे अविरती है, तातै विषयानुरागी बहुत होगा, सो नाही है, संवेगादि गुणसंयुक्त है । बहुरि हिसादि विषै अविरति है, तातै निर्दयी होगा, सो नाही है; दया भाव सयुक्त है, ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि है । आगै देशसंयत गुणस्थान को गाथा दोय करि निर्देश कर है - पच्चक्खाणुदयादो, संजमभावो रण होदि गरि तु । थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमनो ॥३०॥ १. षट्खंडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७४, गाथा १११. २ षट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७६, गाथा ११२.
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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