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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] भावार्थ - जैसे बूढे के होथ ते लाठी छूटे नाही, परंतु शिथिल रहै । तैसे वेदक सम्यक्त्व का श्रद्धान छूट नाहीं । शांति आदि के अथि अन्य देवादिकनि को न सेवै, तथापि शिथिल रहै । जैन देवादिक विष कल्पना उपजावै । असा इहा चल, मलिन, अगाढ का वर्णन उपदेशरूप उदाहरण मात्र कह्या है । सर्व तारतम्य भाव ज्ञानगम्य है । आगे औपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्वनि का उपजने का कारण अर स्वरूप प्रतिपादन कर है - सत्तण्हं उवसमदो, उवसमसम्मो खयादु खइयो य । बिदियकसायुदयादो, असंजदो होदि सम्मो य ॥२६॥ सप्तानामुपशमतः, उपशमसम्यक्त्वं क्षयात्तु क्षायिकं च । द्वितीय कषायोदयादसंयतं भवति सम्यक्त्वं च ॥२६॥ टीका - नाही पाइए है अंत जाका, असा अनंत कहिए मिथ्यात्व, ताहि अनुबध्नति कहिए आश्रय करि प्रवर्ते असे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; बहुरि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति नाम धारक दर्शनमोह प्रकृति तीन; असे सात प्रकृतिनि का सर्व उपशम होने करि औपशमिक सम्यक्त्व हो है । बहुरि तैसै तिन सात प्रकृतिनि का क्षयतै क्षायिक सम्यक्त्व हो है। बहुरि दोऊ सम्यक्त्व ही निर्मल है, जातै शंकादिक मलनि का अंश की भी उत्पत्ति नाही संभव है। बहुरि तैसै दोऊ सम्यक्त्व निश्चल है, जातै प्राप्त, आगम, पदार्थ गोचर श्रद्धान भेदनि विर्षे कही भी स्खलित न हो है । बहुरि तैसे ही दोऊ सम्यक्त्व गाढ है, जाते प्राप्तादिक विष तीव्र रुचि संभव है । यहु मल का न सभवना, स्खलित न होना तीव्ररुचि का संभवना - ए तीनों सम्यक्त्व प्रकृति का उदय का इहां अत्यंत प्रभाव है, तातै पाइए है असा जानना। बहुरि या प्रकार कहे तीन प्रकार सम्यक्त्वनि करि परिणया जो सम्यग्दृष्टि जीव, सो द्वितीय कषाय जे अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; इन विषै एक किसी का उदय करि असंयत कहिए असंयमी हो है, याही ते याका नाम असंयतसम्यग्दृष्टी है।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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