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________________ [ ८३ सम्यग्ज्ञातचन्द्रिका भाषाटीका 1 बहुरि चकार तै विशेष ऐसी भी मार्गणास्थान की सज्ञा गाथा विषै विना कही भी जाननी । आगै प्ररूपणा का दोय प्रकार पना विषै प्रवशेष प्ररूपणानि का अंतर्भूतपना दिखावै हैं - आदेसे संलीणा, जीवा पज्जत्तिपाणसण्णाओ । उवओगोवि य भेदे, वीसं तु परूवणा भणिदा ॥४॥ प्रदेशे संलीना, जीवाः पर्याप्तिप्राणसंज्ञाश्च । उपयोगोऽपि च भेदे, विंशतिस्तु प्ररूपणा भणिताः ॥ ४ ॥ टीका - मार्गणास्थानप्ररूपणा विषै जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग - ए पांच प्ररूपणा संलीना कहिए गर्भित है, किसी प्रकार करि तिनि मार्गणाभेदनि विषं अंतर्भूत है । तैसे होते गुणस्थानप्ररूपण अर मार्गणास्थानप्ररूपण असे संग्रह अपेक्षा करि प्ररूपणा दोय ही निरूपित हो है । आगे किस मार्गरणा विषे कौन प्ररूपणा गर्भित है ? सो तीन गाथानि करि कहै हैं - इंदियकाये लीणा, जीवा पज्जत्तिआणभासमणो । जोगे काओ णाणे, अक्खा गदिमग्गणे आऊ ॥ ५ ॥ इंद्रिratraniना, जीवाः पर्याप्त्यानभाषामनांसि । योगे कायः ज्ञाने, प्रक्षोणि गतिमार्गणायामायुः ||५|| टीका - इंद्रियमार्गणा विषै, बहुरि कायमार्गणा विषै जीवसमास र पर्याप्ति अर सासोश्वास, भाषा, मनबल प्राण ए अंतर्भूत है । कैसे है ? सो कहे है - जीवसमास अर पर्याप्ति इनिकै इद्रिय र कायसहित तादात्म्यकरि कोया हूवा एकत्व संभव है । जीवसमास र पर्याप्ति ए इंद्रिय -कायरूप ही है । बहुरि सामान्य - विशेष करि कीया हूवा एकत्व भव है । जोवसमास, पर्याप्ति पर इंद्रिय, काय विषै कही सामान्य का ग्रहण है, कहीं विशेष का ग्रहरण है । बहुरि पर्याप्तिनि के धर्म-धर्मीकरि कीया हुवा एकत्व संभव है । पर्याप्ति धर्म है, इंद्रिय-काय धर्मी है । तातै जीवसमास र पर्याप्ति
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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