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________________ [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गायो ७२३-७२४ गुगस्याननि विपं कहे तैसे ही आलाप है; किछू विशेष नाही । पृथ्वी आदि त्रस पर्यंत जो लब्धि अपर्याप्त है, ताकै एक लब्धि अपर्याप्त ही आलाप है। आगै योगमार्गणा विर्षे कहै हैंएक्कारसजोगारणं, पुण्णगदारणं सपुग्णालाओ। मिस्सचउक्कस्स पुणो, सगएक्कअपुण्ण पालामो ॥७२३॥ एकादशयोगानां, पूर्णगतानां स्वपूर्णालापः । मिश्रचतुष्कस्य पुनः, स्वकैकापूर्णालापः ॥७२३॥ टीका - पर्याप्त अवस्था विष होहिं असै च्यारि मन, च्यारि वचन, औदारिक, वैकियक, ग्राहारक इन ग्यारह योगनि के अपना-अपना एक पर्याप्त आलाफ ही है। जैसे सत्य मनोयोग के सत्य मन.पर्याप्त आलाप है । औसै सबनि के जानना। बहरि अवशेष रहे च्यारि, मिश्र योग, तिनिकै अपना अपना एक अपर्याप्त आलाप ही । जैसे प्रादारिक मिश्र के एक औदारिक मिश्र अपर्याप्त आलाप है । जैसे गावनि के जानना । मार्ग अवशेष मार्गणा विप कहै है - वेदादाहारो ति य, सगुणट्ठाणाणमोघ आलाओ। णवरि य संढिच्छीणं, पत्थि हु आहारगाण दुगं ॥७२४॥ वेदादाहार इति च, स्वगुणस्थानानामोघ पालापः। नवरि च पंढस्त्रीणां, नास्ति हि आहारकानां द्विकम् ॥७२४॥ टोका - बदमार्गणा ते लगाइ आहारमार्गणा पर्यंत दश मार्गणानि विष प्राना गुणन्याननि का पालापनि का अनुक्रम गुणस्थाननि विपै कहे, तैसे ही जानना । तना विशंग है जो भावनपुंसक वा स्त्री वेद होइ अर द्रव्य पुरुप होइ असे पारा, साहारकमिश्र पालाप नाही है, जाते आहारक शरीर विप प्रश का उदय है। तहा वेदनि के अनिवृत्तिकरण का सवेद भाग पर्यंत यी : . मान. नाया, वादर तोभ इनिकै अनिवृत्तिकरण के वेद रहित र . : नहा न मान ने गास्नान है। सूक्ष्म लोभ के सूक्ष्म सापराय ही है। . :, निांग पनि के दोय गुणस्थान है। मति, श्रुत, अवधि के नव है ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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