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________________ [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७१७-७१८-७१६ ७५६ ] भवनत्रिक देव, बहुरि सौधर्म युगल, बहुरि सनत्कुमार युगल, बहुरि ब्रह्मादिक छह, बहुरि शतारयुगल, बहुरि पानतादिक नवम ग्रैवेयक पर्यंत तेरह, बहुरि अनुदिश, अनुत्तर विमान चौदह, इनि सात स्थानकनि विष क्रम तै तेज का जघन्यांश, बहुरि तेज का मध्यमांश, बहुरि तेज का उत्कृष्टांश, पद्म का जघन्यांश, बहुरि पद्म का मध्यमाश, बहुरि पद्म का उत्कृष्टांश, शुक्ल का जघन्यांश, बहुरि शुक्ल का मध्यमांश, बहुरि शुक्ल का उत्कृष्टांश ए लेश्या पाइए हैं । सव्वसुराणं ओघे, मिच्छदुगे अविरदे य तिण्णेव । गरि य भवणतिकप्पित्थीणं च य अविरदे पुण्णो ॥७१७॥ सर्वसुराणामोघे, मिथ्यात्वद्विके अविरते च त्रय एव । नवरि च भवनत्रिकल्पस्त्रीणां च च अविरते पूर्णः ॥७१७॥ टोका - सर्व सामान्य देव विर्षे मिथ्यादृष्टी सासादन, असंयत इनिविर्षे तीन तीन आलाप है । बहुरि इतना विशेष - जो भवनत्रिक देव अर कल्पवासिनी स्त्री, इनके असयत विष एक पर्याप्त पालाप ही है । जाते असंयत तियंच मनुष्य मरि करि तहा उपजै नाही। मिस्से पुण्णालाओ, अणुद्दिसाणुत्तरा हु ते सम्मा। अविरद तिण्णालावा, अणुद्दिस्साणुत्तरे होति ॥७१८॥ मिश्रे पूर्णालापः, अनुदिशानुत्तरा हि ते सम्यक् । अविरते त्रय आलापाः, अनुदिशानुत्तरे भवति ॥७१८॥ टोका - नव ग्रैवेयक पर्यंत सामान्य देव, तिनिकै मिश्र गुणस्थान विषै एक पर्याप्त पालाप ही है । बहुरि अनुदिश अर अनुत्तर विमानवासी अहमिद्र सर्व सम्यग्दृप्टी ही है । तातै तिनके असंयत विष तीन आलाप है। आगै इद्रिय मार्गणा विर्षे कहै हैंबादरसुहमइंदिय-बि-ति-चउ-रंदियअसण्णिजीवारणं। ओघे पुण्णे तिण्ण य, अपुण्णगे पुण्ण अपुण्णो दु ॥७१६॥ बादरसूक्ष्मैकेंद्रियद्वित्रिचतुरिद्रियासंज्ञिजीवानाम् । अोघे पूर्णे त्रयश्च, अपूर्णके पुनः अपूर्णस्तु ॥७१६॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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