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________________ ७४४ 1 [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७०३ पर्याप्त वा अपर्याप्त है । सासादन विष अपर्याप्त तौ पाचौ पाइए अर पर्याप्त एक पंचेद्रिय पाइए है । मिश्र विषै पर्याप्त पंचेद्रिय ही है। असंयत विर्षे पर्याप्त वा अप प्ति पंचेद्री है। देशसंयत विषै पर्याप्त पंचेद्री ही है। प्रमत्त विषै आहारक अपेक्षा दोऊ है । अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत एक पचेंद्रिय पर्याप्त ही है । सयोगी विपै पर्याप्त है, समुद्घात अपेक्षा दोऊ है । अयोगी विष पर्याप्त ही पंचेद्रिय है। पृथ्वीकायादिक विशेष को लीए एकेंद्रिय जाति अर स्थावर नामा नामकर्म का उदय अर त्रस नामा नामकर्म का उदय ते निपजे जीव के पर्याय ते काय कहिए, ते छह प्रकार है । तहां मिथ्यादृष्टी विर्षे तौ छहौं पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं । सासादन विप बादर पृथ्वी, अप, वनस्पती ए स्थावर अर त्रस विष बेंद्री, तेद्री, चौद्री, असैनी पंचेंद्री ए तौ अपर्याप्त ही है । पर सैनी त्रस काय पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ है । आगें संज्ञी पंचेद्रिय त्रस काय ही है, तहां मिश्र वि पर्याप्त ही है। अविरत विर्ष दोऊ है। देशसंयत विर्षे पर्याप्त ही है । प्रमत्त विर्षे पर्याप्त है। आहारक सहित दोऊ है । अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत पर्याप्त ही है, सयोगी विषै पर्याप्त ही है । समुद्धात सहित दोऊ है । अयोगी विषै पर्याप्त ही है । पुद्गल विपाको शरीर अर अंगोपांग नामा नामकर्म के उदय ते मन, वचन, काय करि सयुक्त जो जीव, ताके कर्म नोकर्म आवने कौ कारण जो शक्ति वा ताकरि उत्पन्न भया जो जीव के प्रदेशनि का चचलपना, सो योग है। सो मन-वचन-काय भेद ते तीन प्रकार है। तहा वीर्यातराय अर नोइन्द्रियावरण कर्म, तिनके क्षयोपशम करि अगोपाग नामकर्म के उदय करि मनःपर्याप्ति सयुक्त जीव के मनोवर्गणारूप जे पुद्गल आए, तिनिका आठ पाखड़ी का कमल के आकार हृदय स्थानक विष जो निर्माण नामा नामकर्म तै निपज्या, सो द्रव्य मन है। तहा जो कमल की पांखड़ीनि का अग्रभागनि विर्ष नोइन्द्रियावरण का क्षयोपशमयुक्त जीव का प्रदेश समूह है, तिनिविप लब्धि उपयोग लक्षण को धरै, भाव मन है। ताका जो परिणमन, सो मनोयोग है । सो सत्य, असत्य, उभय, अनुभय रूप विषय के भेद ते च्यारि प्रकार है। वहुरि भाषापर्याप्ति करि संयुक्त जो जीव, ताकै शरीर नामा नामकर्म के उदय करि अर स्वरनामा नामकर्म का उदय का सहकारी कारण करि भाषावर्गणारूप आए जे पुद्गल स्कंध तिनिका च्यारि-प्रकार भाषारूप होइ परिणमन, सो वचन योग है। सो वचन योग भी सत्यादिक पदार्थनि का कहनहारा है, ताते च्यारि प्रकार है ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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