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________________ गोम्मटसार जोयकाण्ड ७० तिनविषे जीवादिक जो प्रमाण करनेयोग्य समस्त वस्तु, ताकी उद्धार करि गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह नामा ग्रंथ के विस्तार की रचता संता तिस ग्रंथ की आदि ही विष निर्विघ्न शास्त्र की सपूर्णता होने के अथि, वा नास्तिक वादी का परिहार के अथि, वा शिष्टाचार का पालने के अथि, वा उपकार को स्मरणे के अथि विशिष्ट जो अपना इष्ट देव का विशेष, ताहि नमस्कार करे है। भावार्थ - इहां जैसा जानना - सिहनन्दि नामा मुनि का शिप्य, जो गंगवंशी राजमल्ल नामा महाराजा, ताका मंत्री जो चामुंडराय राजा, तिहने नेमीचद्र सिद्धांत चक्रवर्ती प्रति असा प्रश्न कीया - जो सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकायादिक इकतालीस जीवपदनि विप नामकर्म के सत्त्वनि का निरूपण कैसे है ? सो कहौ । तहा इस प्रश्न के निमित्त की पाय अनेक जीवनि के संवोधने के अर्थि जीवस्थानादिक छह अधिकार जामै पाइए, जैसा महाकर्म प्रकृति प्राभृत है नाम जाका, जैसा अग्रायणीय पूर्व का पाचवा वस्तु, अथवा यति भूतबलि आचार्यकृत १ धवल शास्त्र, ताका अनुसार लेइ गोम्मटसार अर याहीका द्वितीय नाम पचसग्रह ग्रथ, ताके करने का प्रारभ किया। तहां प्रथम अपने इप्टदेव को नमस्कार करै है। ताके निर्विघ्नपने शास्त्र की समाप्तता होने कू आदि देकरि च्यारि प्रयोजन कहे। अब इनको दृढ करै हैं। इहा तर्क - जो इप्टदेव, ताको नमस्कार करने करि निर्विघ्नपने शास्त्र की समाप्तता कहा हो है ? तहा कहिए है - जो ऐसी आशंका न करनी, जातै शास्त्र का असा वचन है "विघ्नौधा प्रलयं यांति शाकिनीभूतपन्नगाः । विषं निविषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥" याका अर्थ- जो जिनेश्वरदेव को स्तवतां थकां विघ्न के जु समूह, ते नाश की प्राप्त हो है। बहुरि शाकिनी, भूत, सादिक, ते नाश की प्राप्त हो है। वहरि विध है, सो विपरहितपना की प्राप्त हो है । सो असा वचन थकी शंका न करना । वहरि जन प्रायश्चित्त का आचरण करि व्रतादिक का दोप नष्ट हो है, वहरि जैसे १.पनि बागानायं ने गुणधराचार्य विरचित पायपाहट के सूत्रो पर चूणिमूत्र लिखे है । भूतवली आचार्य " मग्री की रचना है और प्राचार्य वीरसेन ने पटवण्टागम मूत्रो की 'धवला' टीका लिखी है
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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