SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 637
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बीसवां अधिकार : उपयोगाधिकार सुवत पावन कौं भजे, जाहि भक्त व्रतवंत । निज सुव्रत श्री देहु मम, सो सुव्रत अरहंत ॥२०॥ आगे उपयोगाधिकार कहैं हैंवत्थुणिमित्तं भावो, जादो जीवस्स जो दु उवजोगो । सो दुविहो णायव्वो, सायारो चेव णायारो ॥६७२।। वस्तुनिमित्तं भावो, जातो जीवस्य यस्तूपयोगः । स द्विविधो ज्ञातव्यः साकारश्चेवानाकारः ।।६७२॥ टीका - बस है, एकीभाव रूप निवस है; गुण, पर्याय जा विर्षे, सो वस्तु, ज्ञेय पदार्थ जानना । ताके ग्रहण के अर्थि जो जीव का परिणाम विशेष रूप भाव प्रवर्ते, सो उपयोग है। बहुरि सो उपयोग साकार - अनाकार भेद ते दोय प्रकार जानना। आगे साकार उपयोग आठ प्रकार है, अनाकार उपयोग च्यारि प्रकार हैं, असा कहै है णारणं पंचविहं पि य, अण्णाण-तियं च सागरवजोगो । चदु-दंसरणमणगारो, सव्वे तल्लक्खरणा जीवा ॥६७३॥ ज्ञानं पंचविधमपि च, अज्ञानत्रिकं च साकारोपयोगः । चतुर्दशनमनाकारः, सर्वे तल्लक्षणा जीवाः ॥६७३॥ टीका - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल ए पंच प्रकार ज्ञान, बहुरि कुमति, कुश्रुत, विभंग ए तीन अज्ञान, ए आठौ साकार उपयोग है । बहुरि चक्षु, अचक्षु अवधि, केवल ए च्यारयो दर्शन अनाकार उपयोग है। सो सर्व ही जीव ज्ञान - दर्शन रूप उपयोग लक्षण को धरै है। इस लक्षण विपै अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, असंभवी दोष न संभवै हैं । जहां लक्ष्य विप वा अलक्ष्य विष लक्षण पाइए. तहां अतिव्याप्ति दोष है। जैसे जीव का
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy