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________________ [ ६९७ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका j एकगुणं तु जघन्यं, स्निग्धत्वं द्विगुणत्रिगुणसंख्येया। संख्येयानन्तगुणं, भवति तथा रूक्षभावं च ॥६१०॥ टीका - स्निग्ध गुण जो एक गुण है; सो जघन्य है, जाके एक अंश होइ, ताकौं एक गुण कहिए। ताकी आदि देकरि द्विगुण, त्रिगुण, संख्यातगुण, असंख्यातगुण अनंतगुणरूप स्निग्ध गुण जानना । तेसै ही रूक्षगुण भी जानना। केवलज्ञानगम्य सब तै थोरा जो स्निग्धत्व रूक्षत्व, ताकौं एक अंश कल्पि, तिस अपेक्षा स्निग्ध-रूक्ष गुण के अंशनि का इहां प्रमाण जानना । एवं गुणसंजुत्ता, परमाणू आदिवग्गणम्मि ठिया । जोग्गदुगारणं बंधे, दोण्हं बंधो हवे णियमा ॥६११॥ एवं गुरणसंयुक्ताः, परमारणव आदिवर्गणायां स्थिताः । योग्यद्विकयोः बन्धे, द्वयोर्बन्धो भवेनियमात् ॥११॥ टीका- असें स्निग्ध - रूक्ष गुण करि संयुक्त परमाणू, ते प्रथम अणु वर्गणा विष तिष्ठं है । सो यथायोग्य दोय का बंध स्थान विष, तिनही दोय परमाणूनि का बंध हो है। नियमकरि स्निग्ध-रूक्ष गुण के निमित्त ते सर्वत्र बंध हो है। किछ विशेष नाही। जैसे कोऊ जानेगा, तातै जहां बंध होने योग्य नाही असा निषेध पूर्वक जहां बंध होने योग्य है, तिस विधि को कहै है णिद्धणिद्धा ण बज्झति, रुक्खरुक्खा य पोग्गला। गिद्धलुक्खा य बझंति रूवारूवी य पोग्गला ॥६१२॥ स्निग्धस्निग्धा न बध्यन्ते, रूक्षरूक्षाश्च पुद्गलाः। स्निग्धरक्षाश्च बध्यन्ते, रूप्यरूपिणश्च पुद्गलाः ॥६१२॥ टीका - स्निग्ध गुण युक्त पुद्गलनि करि स्निग्ध गुण युक्त पुद्गल बंध नाही । बहुरि रूक्षगुणयुक्त पुद्गलनि करि रूक्ष गुण युक्त पुद्गल वंध नाही, सो यहु कथन सामान्य है । बंध भो हो है । सो विशेष आगे कहेगे। बहुरि स्निग्ध गुण युक्त
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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