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________________ (५) मूल गाथा तो बड़े टाइप मे दी ही है, साथ ही टीका में भी जहाँ पर संस्कृत या प्राकृत के कोई सूत्र अथवा गाथा, श्लोक आदि आये है, उनको भी ब्लैक टाइप में दिया है। (६) गाथा का विपय जहाँ भी ववलादि ग्रंयों से मिलता है, उसका उल्लेख श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास से प्रकाशित गोम्मटसार जीवकाण्ड के आधार से फुटनोट में किया है। अनेक जगह अलौकिक गणितादि के विपय अति मूक्ष्मता के कारण से हमारे भी समझ मे नही आये है - ऐसे स्थानों पर मूल विपय यथावत ही दिया है, अपनी तरफ से अनुच्छेद भी नहीं वदले हैं। सर्वप्रथम मैं पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के महामन्त्री श्री नेमीचन्दजी पाटनी का हार्दिक आभारी हूँ, जिन्होंने इस ग्रंय के संपादन का कार्यभार मुझे देकर ऐसे महान ग्रंथ के मूक्ष्मता से अध्ययन का मुअवसर प्रदान किया। डॉ. हुकमचंद भारिल्ल का भी इस कार्य में पूरा सहयोग एव महत्त्वपूर्ण सुझाव तथा मार्गदर्शन मिला है, इसलिए मैं उनका भी हार्दिक आभारी हूँ। हस्तलिखित प्रतियो से मिलान करने का कार्य अतिशय कप्टसाध्य होता है। मैं तो हस्तलिखित प्रति पढ़ने मे पूर्ण समर्थ भी नहीं था। ऐसे कार्य में शातस्वभावी स्वाध्यायप्रेमी सावर्मी भाई श्री सांभागमलजी वोहरा दूवाले, वापूनगर जयपुर का पूर्ण सहयोग रहा है । ग्रंथ के कुछ विगेप प्रकरण अनेक वार पुनः-पुन. देखने पड़ते थे, फिर भी आप आलस्य छोड़कर निरन्तर उत्साहित रहते थे। मुद्रण कार्य के समय भी आपने प्रत्येक पृष्ठ का शुद्धता की दृष्टि से अवलोकन किया है। एतदर्थ अापका जितना वन्यवाद दिया जाय, वह कम ही है। आशा है भविष्य में भी आपका सहयोग इसीप्रकार निरन्तर मिलता रहेगा। साथ ही ७० कमलावेन जयपुर, श्रीमती शीलाबाई विदिशा एव श्रीमती श्रीवती जैन दिल्ली का भी इस कार्य में सहयोग मिला है, अतः वे भी वन्यवाद की पात्र है। गोम्मटमार जीवकाण्ड, गोम्मटयार कर्मकाण्ड तथा लघिमार-क्षपणासार के "सदृष्टि अधिकार" का प्रकाशन पृथक् ही होगा। गणित सम्बन्धी इस क्लिप्ट कार्य का भार ७० विमलाबेन ने अपने ऊपर लिया तथा शारीरिक अस्वस्थता के वावजूद भी अत्यन्त परिश्रम से पूर्ण करके मेरे इस कार्य में अभूतपूर्व योगदान दिया है, इसलिए मैं उनका भी हार्दिक ग्राभारी हूँ। हस्तलिखित प्रतियाँ जिन मदिरी से प्राप्त हुई हैं, उनके ट्रस्टियो का भी मैं आभारी हूँ, जिन्होंने ये प्रतिग उपलव्य कराई। इस कार्य में श्री विनयकुमार पापड़ीवाल तथा सागरमलजी वज (लल्लूजी) का भी सहयोग प्राप्त हुआ है, इसलिए वे भी धन्यवाद के पात्र है। अन्न ने उस ग्य का स्त्राच्याय करके सभी जन सर्वनता की महिमा से परिचित होकर बारे मवनस्वभाव का प्राथय लेने एवं पूर्ण कल्याण करें- यही मेरी पवित्र भावना है। प्रक्षय तृतीय -० यशपाल जैन
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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