SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 594
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] अणुसंखासंखेज्जागंताय श्रगेज्जगेहि अंतरिया । आहार-तेज-भासा मरण-कम्मइया धुवक्खंधा ॥ ५६४ ॥ सांतरणिरंतरेण य, सुण्णा पत्तेयदेहधुवसुण्णा । बादरणिगोदसुण्णा, सुहुमणिगोदा णभो महक्खंधा ॥ ५६५॥ जुम्मं । अणुसंख्याता संख्यातानन्ताश्च श्रग्राह्यकाभिरन्तरिताः । श्राहारतेजोभाषामनः कार्माण ध्रुवस्कन्धाः ॥ ५९४॥ [ ६७७ सान्तरनिरन्तरया च शुन्या प्रत्येकदेह - ध्रुवशून्याः । बादर निगोदशून्याः, सूक्ष्मनिगोदा नभो महास्कन्धाः || ५६५॥ युग्मम् - टीका - पुद्गल द्रव्य के भेदरूप जे वर्गणा, ते तेईस भेद लीएं है - १ अणुवर्गरणा, २ संख्याताणुवर्गणा, ३ असंख्याताणुवर्गणा, ४ अनंताणुवर्गणा, ५ आहारवर्गरणा, ६ अग्राह्यवर्गरणा, ७ तैजस शरीरवर्गणा, ८ अग्राह्यवर्गणा, ६ भाषावर्गरणा, १० अग्राह्य वर्गरणा, ११ मनोवर्गरणा, १२ अग्राह्य वर्गरणा, १३ कार्माण वर्गरणा, १४ ध्रुव वर्गणा, १५ सांतरनिरंतर वर्गरणा, १६ शून्य वर्गरणा, १७ प्रत्येक शरीरवर्गणा, १८ ध्रुवशून्य वर्गणा, १६ बादरनिगोद वर्गरणा, २० शून्यवर्गरणा, २१ सूक्ष्मनिगोद वर्गणा, २२ नभो वर्गणा, २३ महास्कंधवर्गणा ए तेईस भेद जानने । इहां प्रासंगिक श्लोक कहिये हैं मूर्तिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः । अकर्मकर्मनो कर्मजातिभेदेषु वर्गणा ॥१॥ मूर्तीक पदार्थनि विषे अर संसारी जीव विषै पुद्गल शब्द प्रवर्ते है । वहुरि अकर्म जाति के कर्मजाति के नोकर्म जाति के जे पुद्गल, तिनि विषै वर्गरगा शब्द प्रवर्ते I है । सो अब इहां तेईस जाति की वर्गणानि विषै केते केते परमाणू पाइये ? सो प्रमाण कहिये है तहां अणुवर्गणा तौ एक एक परमाणू रूप है । इस विषै जघन्य, उत्कृप्ट, मध्य भेद भी नाही है ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy