SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 589
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५८५ ६७२ ] लोकस्यासंख्येयभागप्रभृतिस्तु सर्वलोक इति । आत्मप्रदेशविसर्परणसंहारे व्यापृतो जीवः ॥५८४॥ टीका - जीव का क्षेत्र कहै हैं, सो शरीरमात्र अपेक्षा तो सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना ते लगाइ, एक एक प्रदेश वधता उत्कृष्ट महामत्स्य की अवगाहना पर्यत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके ऊपरि समुद्घात अपेक्षा वेदना समुद्घातवाले का एक एक प्रदेश क्षेत्र विष बधता बधता महामत्स्य की अवगाहना ते तिगुणा लंबा, चौड़ा क्षेत्र पर्यंत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके ऊपर एक एक प्रदेश वधता बधता मारणांतिक समुद्घातवाले का स्वयंभू रमण समुद्र का वाह्य स्थंडिल क्षेत्र विर्षे तिष्ठता जो महामत्स्य, सो सप्तमनरक विषे महारौरव नामा श्रेणीबद्ध विला प्रति कीया जो मारणांतिक समुद्घात तीहि विष पाच सै योजन चौडा, अढाई सै योजन ऊंचा, प्रथम वक्रगति विष एक राजू, द्वितीय वक्र विष आधा राजू, तृतीय वक्र विर्षे छह राजू, लंबाई लीएं जो उत्कृष्ट क्षेत्र हो है; तहां पर्यंत क्षेत्र जानना । वहुरि ताके ऊपरि केवलिसमुद्घात विष लोकपूरण पर्यंत क्षेत्र जानना । सो असे सर्व भेदरूप क्षेत्र विष अपने प्रदेशनि का विस्तार - संकोच होते जीवद्रव्य व्यापृतं कहिए व्यापक हो है। संकोच होते स्तोक क्षेत्र विष आत्मा के प्रदेश अवगाहरूप तिष्ठ है । विस्तार होते ते फैलिकरि घने क्षेत्र विषै तिष्ठे है। जातै जीव के अवगाहना का भेद वा उपपाद वा समुद्धात भेद सर्व ही संभव है । तातै पूर्वोक्त जीव का क्षेत्र जानना। पोग्गलदवारणं पुण, एयपदेशादि होंति भजणिज्जा। एक्केक्को दु पदेसो, कालाणूणं धुदो होदि ॥५८५॥ पुद्गलद्रव्याणां पुनरेकप्रदेशादयो भवन्ति भजनीयाः । एकैकस्तु प्रदेशः, कालाणूनां ध्रुवो भवति ॥५८५॥ टोका - पुद्गलद्रव्यनि का एक प्रदेशादिक यथासंभव भजनीय कहिए भेद करने योग्य क्षेत्र जानना, सो कहिए है - दोय अणू का स्कव एक प्रदेश विपै तिष्ठ वा दोय प्रदेशनि विपै तिष्ठ, बहुरि तीन परमाणूनि का स्कंध एक प्रदेश वा दोय प्रदेश वा तीन प्रदेश विषै तिप्ठे, असे जानना । बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाश का प्रदेश विपै एक एक पाइए है, सो ध्र वरूप है, भिन्न भिन्न सत्त्व धरै है; तातै तिनिका क्षेत्र एक एक प्रदेशी है
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy