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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका | [६३७ लोक चौदह राजू ऊचा है। बसनाली अपेक्षा एक राजू लवा - चौडा है । सो तहा चौदह राजू विर्ष सनत्कुमार-माहेद्र के वासी उत्कृष्ट तेजोलेश्यावाले देव, ऊपरि अच्युत सोलहवा स्वर्ग पर्यत गमन कर है । अर नीचे तीसरी नरक पृथ्वी पर्यंत गमन करे है । सो मच्युत स्वर्ग ते तीसरा नरक आठ राजू है । तातै चौदह भाग मे आठ भाग कहे अर तिसमें तिस तीसरा नरक की पृथ्वी की मोटाई विपं जहा पटल न पाइए असा हजार योजन घटावने, तातै किचित् ऊन कहे है । इहा जो चौदह धनरूप राजूनि की एक शलाका होइ, तौ आठ घनरूप राजूनि की केती शलाका होइ ? औसै त्रैराशिक कीएं आठ चौदहवा भाग आवै है । अथवा भवनत्रिक देव ऊपरि वा नीचे स्वयमेव तौ सौधर्म - ईशान स्वर्ग पर्यत वा तीसरा नरक पर्यत गमन कर है। अर अन्य देव के ले गये सोलहवा स्वर्ग पर्यंत विहार करै है । तातै भी पूर्वोक्त प्रमाण स्पर्श सभवै है । बहुरि तेजोलेश्या का मारणातिक समुद्घात विष स्पर्श चौदह भाग में नव भाग किछ घाटि सभव है । काहे तैं ? भवनत्रिक देव वा सौधर्मादिक च्यारि स्वर्गनि के वासी देव तीसरे नरक गएं, अर तहां ही मरण समुद्घात कीया, बहुरि ते जीव आठवी मुक्ति पृथ्वी विष बादर पृथ्वी काय के जीव उपजते है । तातै तहां पर्यंत मरण समुद्घातरूप प्रदेशनि का विस्तार करि दंड कीया । तिन आठवी पृथ्वी ते तीसरा नरक नव राजू है । अर तहां पटल रहित पृथ्वी की मोटाई घटावनी, ताते किचित् ऊन नव चौदहवा भाग सभव है। बहुरि तैजस समुद्घात अर आहारक समुद्घात विष सख्यात घनागुल प्रमाण स्पर्श जानना, जातै ए मनुष्य लोक विष ही हो है । बहुरि केवल समुद्धात इस लेश्या वालो के होता ही नाही । बहुरि उपपाद विषै स्पर्श चौदह भागनि विपै किछ घाटि डेढ राजू भाग मात्र जानना । सो मध्यलोक ते तेजोलेश्या ते मरिकरि सौधर्म ईशान का अत पटल विष उपजे, तीहि अपेक्षा संभव है। इहां कोऊ कहै कि तेजोलेश्या के उपपाद विर्ष सनत्कुमार माहेद्र पर्यंत क्षेत्र देव का स्पर्श पाइए है, सो तीन राजू ऊंचा है, तातै चौदह भागनि विर्ष किचित् ऊन तीन भाग क्यो न कहिये ? ताका समाधान - सौधर्म - ईशान ते ऊपरि सख्यात योजन जाड, सनत्कुमार माहेद्र का प्रारभ हो है । तहां प्रथम पटल है, अर डेढ राजू जाइ; अतिम पटल है, नो अंत पटल विष तेजोलेश्या नाही है, असा केई आचार्यनि का उपदेश है । नातं सपना
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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