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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषा टीका [ ६२१ का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण एक एक समय विष मरणेवाले जीवनि का प्रमाण हो है । इस प्रमाण कौं पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण विग्रहराति करनेवालों का प्रमाण हो है । यातौं पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण मारणांतिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण हो है । याकौ पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण दूर मारणातिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण हो है । याको द्वितीय दीर्घ दंड विष स्थित मारणांतिक समुद्घात, ताके पूर्व भया असा उपपादता करि युक्त जीवनि के प्रमाण ल्यावने को पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा एक भाग प्रमाण उपपाद जीवनि का प्रमाण है। तहां तियंच उपजने की मुख्यता करि एक जीव संबंधी प्रदेश फैलने की अपेक्षा डेढ राजू लंबा, संख्यात सूच्यंगुल प्रमाण चौडा वा ऊंचा क्षेत्र है । याका धन क्षेत्रफल संख्यात प्रतरांगुल करि डेढ राजू को गुरणे, जो प्रमाण भया, तितना जानना । इसकरि उपपाद जीवनि के प्रमाण कौं गुरण, जो प्रमाण होइ, तितना उपपाद विष क्षेत्र जानना । बहुरि केवलि समुद्घात इस लेश्या विष है नाहीं; तातै कथनान कीया। जैसे पीत लेश्या विष क्षेत्र है। आगे पद्मलेश्या विष क्षेत्र कहिए है - __संख्याधिकार विष पद्मलेश्या वाले जीवनि का जो प्रमाण कह्या, ताकौ सख्यात का भाग दोजिये, तहा बहुभाग स्वस्थान स्वस्थान विष जानना । अवशेप एक भाग रह्या, ताको संख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग विहारवत् स्वस्थान विर्ष जानना । अवशेष एक भाग रह्या, ताकौं सख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग वेदना समुद्घात विष जानना । अवशेष एक भाग रह्या, सो कषाय समुद्धात विष जानना । असे जीवनि का प्रमाण कह्या । अब यहां पद्मलेश्यावाले तिर्यच जीवनि का अवगाहना प्रमाण बहुत है; तातै तिनकी मुख्यता करि कथन कीजिए है । तहा स्वस्थानस्वस्थान विष भर विहारवत्स्वस्थान विष एक तियंच जीव की अवगाहता मुख्यपनै कोस लंबी पर ताके नव में भाग मुख का विस्तार, सो याका क्षेत्रफल वासो त्ति गुरगो परिही' इत्यादि सूत्र करि करिए, तब सख्यात धनांगुल प्रमाण होइ। इसकरि स्वस्थान स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुणे, स्वस्थान स्वस्थान विप क्षेत्र होइ । भर विहारवत्स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुण, विहारवत्स्वस्थान विर्षे क्षेत्र हो है । बहुरि पूर्वोक्त तिथंच शरीर की अवगाहना ते पूर्वोक्त प्रकार सादा । च्यारि गुणा वेदना अर कषाय समुद्धात विर्षे एक जीव की अपेक्षा क्षेत्र है । इसकरि
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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