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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [११३ जगच्छणी. कौं गुण, जो-प्रमाण होइ, तितने भवनवासो। बहुरि तीन से योजन के वर्ग का भाग जगत्प्रतरू को दीए, जो-प्रमाण होइ, तितने व्यतर । बहुरि घनागुल- का तृतीयः वर्गमूल करि जगच्छेणी, कौ गुणै, जो प्रमारण होइ, तितने सौधर्म - ईशान स्वर्ग के वासी देवः । बहुरि पांच बार संख्यात करि गुणित पणट्ठी प्रमाण प्रतरागुल का भाग जगत्प्रतर कौं दीए; जो प्रमाण होइ, तितने तेजो लेश्यावाले तियंच । बहुरि संख्यात तेजोलेश्यावालो मनुष्य, इनि सबनि का जोड़. दीए, जो प्रमाण होइ, तितने जीव तेजोलेश्यावाले जाननें ।।बहुरिः पद्मलेश्यावाले जीव, तेजोलेश्यावाले जीवनि ते संख्यात गुणे घाटि हैं । तथापि तेजोलेश्यावाले संज्ञी, तियंचनि ते भी संख्यात गुणे घाटि है; जातं पद्मलेश्यावाले पंचेंद्री सैनी तिर्यचनि का प्रमाण विष पद्मलेश्यावाले कल्पवासी देव अर मनुष्य, तिनिका प्रमाण मिलाए, जो जगत्प्रतर का असंख्यातवे भागमात्र प्रमाण भया तितने पद्मलेश्यावाले जीव है । बहुरि शुक्ललेश्यावाले जीव सूच्यंगुल के असंख्यातवे भाग:प्रमाण है। जैसे क्षेत्र प्रमाण करि तीन शुभ लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण कह्या। बेसदछप्पण्णंगुल-कवि-हिद-पदरं तु जोइसियमारणं । तस्स य संखेज्जदिमं तिरिक्खसण्णीण परिमाणं ॥५४१॥ द्विशतषट्पंचाशदंगुलकृतिहितप्रतरं तु ज्योतिष्कमानम् । तस्य च संख्येयतमं तिर्यक्संजिनां परिमाणं ॥५४१॥ टीका - पूर्व जो तेजोलेश्यावालों का प्रमाण ज्योतिषी देवराशि ते साधिक कह्या, अर पद्मलेश्या का प्रमाण संज्ञी तियंचनि के सख्यातवे भागमात्र कह्या, सो दोय से छप्पन का वर्ग पणट्ठी, तीहि प्रमाण प्रतरागुल का भाग जगत्प्रतर को दीए, जो प्रमाण होइ, तितने ज्योतिषी जानने । बहुरि इनिके सख्यातवे, भाग प्रमाण सैनी तिर्यचनि का प्रमाण जानना। तेउदु असंखकप्पा, पल्लासंखेज्जभागया सुक्का । ओहि असंखेज्जदिमा, तेउतिया भावदो होति ॥५४२॥ तेजोया असंख्यकल्पाः पल्यासंख्येयभागकाः शुक्लाः। अवध्यसंख्येयाः तेजस्त्रिका भावतो भवंति ॥५४२१५
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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