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________________ ५७८ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४७८.४७६ टीका - नाम के एक देश ते सर्व नाम का ग्रहण करना, इस न्याय करि इस गाथा का अर्थ कीजिए है । १ दर्शनिक, २ वतिक, ३ सामायिक, ४ प्रोपधोपवास, ५ सचित्तविरत, ६ रात्रिभोजनविरत, ७ ब्रह्मचारी, ८ प्रारंभविरत, ६ परिग्रह विरत, १० अनुमति विरत, ११ उद्दिष्ट विरत जैसे ग्यारह प्रतिमा की अपेक्षा देशविरत के ग्यारह भेद जानने । तहां पांच उदुबरादिक अर सप्त व्यसननि को त्यागे अर शुद्ध सम्यक्त्वी होइ; सो दर्शनिक कहिए। पंच अणुव्रतादिक को धारै, सो व्रतिक कहिए । नित्य सामायिक क्रिया जाकै होइ; सो सामायिक कहिए। अवश्य पनि विप उपवास जाकै होइ; सो प्रोषधोपवास कहिए । जीव सहित वस्तु सेवन का त्यागी होइ; सो सचित्त विरत कहिए । रात्रि वि भोजन न करै सो रात्रिभक्त विरत कहिए। सदा काल शील पालै; सो ब्रह्मचारी कहिए। पाप पारभ कौं त्यागे; सो आरंभ विरत कहिए । परिग्रह के कार्य को त्यागै; सो परिग्रह विरत कहिए । पाप की अनुमोदना कौं त्यागे; सो अनुमति विरत कहिए। अपने निमित्त भया आहारादिक को त्यागै; सो उद्दिष्ट विरत कहिए । इनिका विशेष वर्णन ग्रंथांतर से जानना। जीवा चोद्दस-भेया, इंदिय-विसया तहट्ठवीसं तु । जे तेसु रणेव विरया, असंजदा ते मुणेदव्वा ॥४७८॥ जीवाश्चतुर्दशभेदा, इंद्रियविषयास्तथाष्टविंशतिस्तु । ये तेषु नैव विरता, असंयताः ते मंतव्याः ॥४७८।। टोका - चौदह जीवसमास रूप भेद, बहुरि तैसे ही अट्ठाईस इद्रियनि के विषय, तिनिविषे जे विरत न होई, जीवनि की दया न करे, विषयनि विषै रागी होइ, ते असंयमी जानने। पंच-रस-पंच-वण्णा, दो गंधा अट्ठ-फास-सत्त-सरा । मणसहिदहावीसा, इंदीयविसया मुरणेदव्वा ॥४७॥ पंचरसपंचवर्णाः, द्वौ गंधौ अष्टस्पर्शसप्तस्वराः। मनःसहिताः अष्टविंशतिः इंद्रियविषयाः मंतव्याः ॥४७६॥ १ पट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा स. १६४।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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